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गुरु-शिष्य
सारी जाँच करना कि अपनी शंका है, वह सच है या गलत है। हर प्रकार से अपनी बुद्धि से जितना नापा जा सके उतना नाप लेना चाहिए, फिर भी यदि कभी हमें अनुकूल नहीं आए तो हम दूसरी दुकान में जाएँ, उन्हें छेड़े बिना । हम दूसरी दुकान खोजें, तीसरा दुकान खोजें, ऐसा करते-करते किसी दिन सही दुकान मिल जाएगी।
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प्रश्नकर्ता : लेकिन हमारा विकास हुए बिना हम सद्गुरु को पहचान किस तरह पाएँगे?
दादाश्री : हम पहले ही पूछ लें कि, 'साहब, मुझे व्यापार नहीं चाहिए। मुझे मुक्ति की ज़रूरत है। तो आप मुक्त हुए हों तो मैं यहाँ पर आपकी सेवा में बैठ जाऊँ?' तो हर्ज क्या है? लेकिन कोई ऐसा कहनेवाला है कि 'मैं आपको मुक्ति दिलवाऊँगा?' फिर साक्षी - वाक्षी की ज़रूरत नहीं है। उन्हें तुरंत आप कह दो कि, ‘मैं छह महीने बैठूंगा और आपके कहने अनुसार करूँगा और फल नहीं आएगा तो मैं चला जाऊँगा ।' लेकिन कोई ऐसा बोलेगा नहीं, वर्ल्ड में कोई भी बोलेगा नहीं। पूछने में हर्ज क्या है ? 'साहब आपकी मुक्ति हुई हो तो मुझे कहिए। मुझे मुक्ति चाहिए। मुझे दूसरे स्टेशन रास नहीं आते। बीच के स्टेशनों का मुझे काम नहीं है।' ऐसा साफ-साफ कह दें। तब वे कहेंगे, 'मैं ही भाई, बीच के स्टेशन पर हूँ।' तब हम समझ जाएँगे न, कि हमें बीच का स्टेशन नहीं चाहिए। यानी इस तरह से ढूंढें तो ही पता चलेगा, वर्ना पता नहीं चलेगा। ऐसे विनयपूर्वक उनसे पूछें, वर्ना बिना पूछे बैठे, उससे तो अनंत अवतार भटके ही हैं न, अभी तक! वे साहब बीच के स्टेशन पर रहते हों और हम भी वहाँ रहें, तो उसका अंत कब आएगा फिर ?
प्रश्नकर्ता : तो सद्गुरु ढूँढने के लिए पुस्तक का ज्ञान कैसे काम आता
है?
दादाश्री : वह काम में नहीं आता न ! उसीसे तो यह भटकना हुआ है सारा। अनंत अवतार से पुस्तकों का ज्ञान सीखे तो भी भटकन, भटकन, भटकन! सद्गुरु का मिलना, वह तो बहुत बड़ी चीज़ है । लेकिन जिसे मुक्ति की कामना है, उसे सब मिल आता है । मुक्ति की कामना चाहिए। पूजे जाने