Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ १२ गुणस्थान विवेचन सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका मान, माया, लोभ से व हास्य-भयादिक से यदि अन्यथा श्रद्धा करे व उपदेश दे, तो वह महापापी है तथा विशेष ज्ञानवान गुरु के निमित्त बिना व अपने विशेष क्षयोपशम बिना कोई सूक्ष्म अर्थ अन्यथा प्रतिभासित हो और वह ऐसा जाने कि जिनदेव का उपदेश ऐसा ही है - ऐसा जानकर कोई सूक्ष्म अर्थ की श्रद्धा करे व उपदेश दे, तो उसको महत् पाप नहीं होता। वही इस गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ में भी आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने कहा है - सम्माइट्ठी जीवो, उवइ8 पवयणं तु सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं, अजाणमाणो गुरुणियोगा ।।२७।। ७. प्रश्न : आपने विशेष ज्ञानी से ग्रन्थ का यथार्थ सर्व अर्थ का निर्णय करके टीका करने का प्रारम्भ क्यों नहीं किया ? उत्तर : कालदोष से केवली-श्रुतकेवली का तो यहाँ अभाव ही है और विशेष ज्ञानी भी विरले ही मिलते हैं। जो कोई हैं, वे तो दूर क्षेत्र में हैं, उनका संयोग दुर्लभ है और आयु, बुद्धि, बल, पराक्रम आदि तुच्छ रह गये हैं। इसलिये जितना हो सका, उतने अर्थ का निर्णय किया; अवशेष जैसे हैं, तैसे प्रमाण हैं। ८. प्रश्न : आपने कहा वह सत्य है; किन्तु इस ग्रन्थ में जो भूल होगी, उसके शुद्ध होने का क्या कुछ उपाय भी है ? उत्तर : एक उपाय यह करते हैं - ज्ञानी पुरुषों का प्रत्यक्ष तो संयोग नहीं है; इसलिये उनको परोक्ष ही ऐसी विनती करता हूँ कि "मैं मन्दबुद्धि हूँ, विशेष ज्ञान रहित हूँ, अविवेकी हूँ; शब्द, न्याय, गणित, धार्मिक आदि ग्रन्थों का विशेष अभ्यास मुझे नहीं है; अत: मैं शक्तिहीन हूँ; फिर भी धर्मानुराग के वश होकर टीका करने का विचार किया है; उसमें जहाँकहीं भूल हो जाय, अन्यथा अर्थ हो जाय, वहाँ मेरे ऊपर क्षमा करके उस अन्यथा अर्थ को दूर करके यथार्थ अर्थ लिखना । इसप्रकार विनती करके जो भूल होगी, उसके शुद्ध होने का उपाय किया है। ९. प्रश्न : आपने टीका करने का विचार किया, यह तो अच्छा किया है; किन्तु ऐसे महान् ग्रन्थ की टीका संस्कृत में ही चाहिये, भाषा में तो उसकी गम्भीरता भासित नहीं होगी। उत्तर : इस ग्रन्थ की 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामक संस्कृत टीका तो पूर्व में है ही; किन्तु वहाँ संस्कृत, गणित, आम्नाय आदि के ज्ञान रहित जो मन्दबुद्धि हैं, उनका प्रवेश नहीं होता है। यहाँ काल-दोष से बुद्धि आदि के तुच्छ होने से संस्कृतादि के ज्ञानरहित जीव बहुत हैं, उन्हीं को इस ग्रन्थ के अर्थ का ज्ञान कराने के लिये भाषा टीका करता हूँ। अतः जो जीव संस्कृतादि सहित विशेष ज्ञानवान हैं, वे मूल ग्रन्थ व संस्कृत टीका से अर्थ धारण करें। जो जीव संस्कृतादि विशेष ज्ञानरहित हैं, वे भाषा टीका से अर्थ ग्रहण करें और जो जीव संस्कृतादि ज्ञानसहित हैं; परन्तु गणितआम्नायादिक के ज्ञान के अभाव से मूल ग्रन्थ व संस्कृत टीका में प्रवेश नहीं पा सकते हैं, वे इस भाषा टीका से अर्थ को धारण करके मूल ग्रन्थ व संस्कृत टीका में प्रवेश करें तथा जो भाषा टीका से मूल ग्रन्थ व संस्कृत टीका से अधिक अर्थ हो सके, उसको जानने का अन्य उपाय बने वह करें। १०. प्रश्न : संस्कृत ज्ञानवालों को भाषा अभ्यास में अधिकार नहीं है। उत्तर : संस्कृत ज्ञानवालों को भाषा बांचने से तो कोई दोष आते नहीं हैं, अपना प्रयोजन जैसे सिद्ध हो वैसे ही करना। पूर्व में अर्धमागधी आदि भाषामय महाग्रन्थ थे। जब जीवों की बुद्धि की मन्दता हुई तब संस्कृतादि भाषामय ग्रन्थ बने । अब जीवों की बुद्धि की विशेष मन्दता हुई, उससे देशभाषामय ग्रन्थ करने का विचार हुआ। संस्कृतादि ग्रन्थ का अर्थ भी भाषा द्वारा ही जीवों को समझाते हैं। यहाँ भाषा द्वारा ही अर्थ लिखने में आया तो कुछ दोष नहीं है। ___इसप्रकार विचार कर श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका के अनुसार 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' नामक यह देशभाषामयी टीका करने का निश्चय किया है।

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