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मैं
गीता दर्शन भाग-4
प्रकट किए जा रहा हूं।
जिनसे वे बोल रहे थे, वे अंधे भी नहीं थे और बहरे भी नहीं थे। उनके पास ठीक आपके जैसी ही आंखें थीं, और आपके जैसे ही कान थे। लेकिन जीसस को यह बार-बार कहना पड़ा है कि जिनके पास आंख हो, वे देख लें, क्योंकि मैं मौजूद हूं; और जिनके पास कान हो, वे सुन लें, क्योंकि मैं बोल रहा हूं; जिनके पास हृदय हो, अनुभव कर लें, क्योंकि अनुभव सामने साकार है। कृष्ण कहते हैं, अब मैं गोपनीय बात कह सकूंगा । आठ लंबे अध्यायों की चर्चा के बाद कृष्ण श्रद्धा सूत्र पर विचार करना शुरू करते हैं। अब तक वे तर्क की बात कर रहे थे। अब तक वे अर्जुन को समझाने की कोशिश कर रहे थे; क्योंकि अर्जुन नासमझ बने रहने की जिद्द पर अड़ा था। अब तक वे अर्जुन के संदेह काटने में लगे थे; क्योंकि अर्जुन संदेह पर संदेह खड़े किए
था। अब तक वे अर्जुन के नास्तिक से संघर्ष कर रहे थे। अब वे कहते हैं, तेरा नास्तिक विसर्जित हुआ । अब तेरी दोष -दृष्टि खो गई। अब तू संदेह से भरा हुआ दिखाई नहीं पड़ता। अब तेरे मन में दुविधा नहीं है । अब तू किसी जिद्द पर अड़ा हुआ नहीं है। अब तू विपरीत अपेक्षा से सोचेगा नहीं। अब तेरे हृदय का द्वार खुला। अब तू दोष- दृष्टि को छोड़कर देख सकेगा। तो मैं अब तुझसे परम गोपनीय रहस्य की बात कहता हूं।
जब चित्त संदेह से भरा हो, तो क्षुद्र बातें ही कही जा सकती हैं। उन्हें भी कहना मुश्किल है, क्योंकि क्षुद्र बातों पर भी संदेह खड़ा हो जाता है। जब गहन बातें कहनी हों, तो एक आत्मीयता चाहिए, एक इंटिमेसी, एक ऐसा नैकटय, एक ऐसा अपनापन, जहां संदेह भेद खड़ा नहीं करता है, जहां शंकाएं उठकर बीच में जो नैकटय की शांत झील बनी है, उस पर लहरें नहीं उठातीं, कोई कंपन नहीं है संदेह का—तभी जो रहस्यपूर्ण है, वह कहा जा सकता है। जरा-सा भी संदेह का कंपन हो, तो रहस्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कहना व्यर्थ है, क्योंकि सुना नहीं जा सकेगा। बताना फिजूल है, क्योंकि देखा नहीं जा सकेगा।
कृष्ण प्रसन्न होकर इस सूत्र को कहते हैं। इन आठ अध्यायों में उन्होंने निरंतर अर्जुन की बुद्धि से संघर्ष किया है, बुद्धि को काटा है। ताकि बुद्धि हट जाए, तो हृदय उभर आए। और बुद्धि जब तक काम करती है, तब तक हृदय विश्राम करता है । और जब बुद्धि विश्राम पर चली जाती है, तो हृदय सक्रिय हो जाता है। और कुछ रहस्य हैं, जो केवल हृदय से ही समझे जा सकते हैं। ऐसा समझें
कि जो भी रहस्य हैं, वे हृदय से ही समझे जा सकते हैं। क्योंकि हृदय जरा-सी भी भेद की रेखा नहीं खींचता । हृदय निकट आ सकता है, बुद्धि दूर ले जाती है।
अगर दो व्यक्ति बैठे हों और उनके बीच बुद्धि का संबंध हो, तो उनके बीच इतना फासला है, जितना किन्हीं दो आकाश के तारों के | बीच है। वे कितने ही निकट बैठे हों, वे एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर बैठे हों; लेकिन अगर उनके बीच बुद्धि का आवागमन है, अगर उन दोनों के बीच विचार का लेन-देन है, अगर उनका संबंध बौद्धिक है, इंटलेक्चुअल है, तो वे इतने फासले पर हैं, जितने फासले पर दो बिंदु हो सकते हैं। लेकिन अगर दो दूर के ताराओं पर भी दो व्यक्ति बैठे हों, और उनके बीच विचार का आवागमन नहीं है, और हृदय के द्वार खुल गए हैं, तो वे इतने निकट हैं, जितने निकट कभी भी दो प्रेमी नहीं हुए।
नैकटय, निस्तरंग आत्मीयता का नाम है। जब दोनों के बीच कोई तरंग न उठती हो । जब अर्जुन अर्जुन न रहे और अपनी बुद्धि को तिलांजलि दे दे, तो ही कृष्ण जो रहस्य उसे कहना चाहते हैं, उसके कहने की भूमिका निर्मित होती है; अर्जुन पात्र बनता है।
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हैं।
अब तक उसने उठाए हैं सवाल। सवाल दो तरह से उठाए जाते | एक तो इसलिए कि जो कहा गया है, उसे और गहरे में समझना है; तब सवाल हृदय से आते हैं। और एक इसलिए कि जो कहा गया है, उसे गलत सिद्ध करना है; तब सवाल बुद्धि से उठाए जाते हैं। एक तो तब, जब मैं जानता हूं पहले से ही कि सही क्या है, और उसके आधार पर सवाल उठाए चला जाता हूं। तब वे बुद्धि से उठाए जाते हैं । और एक तब, जब मुझे तो पता नहीं कि सही क्या है, लेकिन मैं सही को जानना चाहता हूं; तब हृदय से सवाल उठाए जाते हैं।
जो सवाल हृदय से आते हैं, वे संदेह नहीं हैं। वे प्रश्न सत्संग बन जाते हैं। और जो सवाल बुद्धि से आते हैं, वे सवाल दो के बीच खाई को और गहरा कर देते हैं।
बुद्धि और बुद्धि के बीच की खाई को पाटना असंभव है। बुद्धि और बुद्धि के बीच किसी तरह का सेतु निर्मित नहीं होता है। बुद्धि और बुद्धि के बीच सिर्फ टूट हो सकती है, मेल नहीं हो सकता। | हृदय और हृदय के बीच टूट का कोई उपाय नहीं, मेल स्वाभाविक है। इसलिए कृष्ण ने पूरी कोशिश की है कि अर्जुन की बुद्धि को | काटकर गिरा दें। बुद्धि हट जाए, बुद्धि का पर्दा हट जाए, तो हृदय उन्मुख हो जाता है, सामने आ जाता है।
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