Book Title: Gita Darshan Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 278
________________ * गीता दर्शन भाग-42 काश में जाए, तो हमें कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन जैन साधु नाचे, तो | इस भक्त के विरोधाभास को ठीक से समझ लें। इनकंसिवेबल है; यह कुछ मेल नहीं खाती बात। भक्त कहता है, हम तुमसे अलग हैं, क्योंकि मिलने का मजा उसका कारण है। क्योंकि मार्ग शुद्धतम ज्ञान का है, सूखे ज्ञान | तभी आएगा, जब हम तुमसे अलग हैं। अगर हम तुमसे एक ही हैं का है। जरूरत है उसकी। कुछ हैं, जो उसी मार्ग से जा सकेंगे। कुछ सदा से, तो मिलने का सारा अर्थ ही खो गया। फिर मिले न मिले, हैं, जिनके लिए वही उपाय है। और जिनके लिए वही उपाय है, बराबर है। उनके लिए श्रेष्ठतम वही है। लेकिन जो विपरीत है, उसको कठिनाई | यह नदी जो दौड़ती जाती है सागर की तरफ, यह जो नाचती हुई खड़ी हो जाएगी। वह अपने को सताना शुरू कर देगा। उमंग है, यह जो उत्सवपूर्ण भागना है, यह इसीलिए है कि सागर __ अब अगर एक व्यक्ति जैन धर्म में पैदा हुआ है और भक्ति | वहां दूर है और अलग है। और यह मिलन एक घटना होगी। उसका मार्ग है, तो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। कठिनाई इसलिए इस नदी को कोई कहे कि तू पागल है, तू सागर से एक है ही। खड़ी होगी कि जैन धर्म में भक्ति के लिए उपाय नहीं है। अगर वह यह भी ठीक है। नदी सागर से एक है ही। उसी से पैदा हुई है। कोशिश करके उपाय करेगा, तो वे उपाय झूठे होंगे। जैनों ने | सूरज की किरणों पर चढ़कर, हवाओं में जाकर, उसी से उठकर कोशिश की है। जैनों ने कोशिश की है कि भक्ति का भी कोई मार्ग आई है। उसी सागर से भाप उठी है. वाष्पीभत हुई है. आकाश खोज लिया जाए। मगर उसमें आधार नहीं रहता, जड़ें नहीं रहतीं। | बादल बनी है, बरसी है पहाड़ों पर, गंगोत्री से उतरी है, गंगा बनी और उसमें एक तरह का अन्याय भी मालूम पड़ता है। है, चली है सागर की तरफ। ___ अब अगर महावीर के सामने कोई भक्ति-भाव से नाचने लगे, ज्ञानी कहेगा, व्यर्थ का इतना उत्सव है! नाहक इतनी दौड़धूप है! तो महावीर के साथ निश्चित अन्याय है। अन्याय इसलिए है कि | इतने शोर-गुल की कोई भी जरूरत नहीं है। इतने नदी-पहाड़ और महावीर की खड़ी नग्न प्रतिमा, उससे इस नृत्य का कोई मेल नहीं | | इतने मैदान पार करके भागने का प्रयोजन क्या है ? तू सागर के साथ होता। यह नृत्य बेमानी है। एक है ही। कृष्ण के सामने यह नृत्य सार्थक मालूम होता है। इसमें | लेकिन नदी कहेगी कि सागर को अलग ही रहने दो, उसे दूर ही तालमेल है। कृष्ण खड़े हैं मोर-मुकुट लगाए हुए, हाथ में बांसुरी | | रहने दो, उसे दूसरा ही रहने दो, क्योंकि मैं मिलने का आनंद लेना' लिए हुए। उनके सामने कोई नाच रहा है, तो इस नाचने में और | चाहती हूं। और यही प्रार्थना रहेगी परमात्मा से कि सदा यह मिलने कृष्ण के बीच एक संगति है। लेकिन महावीर नग्न खड़े हैं, उनके की घटना घटती रहे। इतनी दूरी बनाए रखना कि मिलन संभव होता सामने कोई नाच रहा है, तो वह केवल इतना कह रहा है कि जिस | रहे। इतने दूर तो रखना ही। धर्म में मैं पैदा हो गया, वह मेरे लिए नहीं था। और कुछ नहीं। अब यह जो स्थिति है, जैसे इस्लाम कहता है कि कोई आदमी वह इतना ही कह रहा है। यह न कहे कि मैं परमात्मा के साथ एक हूं, उसका कारण कुल अगर कोई ज्ञानी को आप कृष्ण के मंदिर में ले जाएं, तो सारी इतना ही है। कल मैंने कहा कि मंसूर को सूली लगा दी। लगाने का बात व्यर्थ मालूम पड़ेगी। यह सब क्या पागलपन है! यह | कारण कुल इतना था, मंसूर का मार्ग था ज्ञान। मंसूर कहता था, मोर-मुकुट, यह बांसुरी, यह सब क्या पागलपन है! अनलहक। मैं ईश्वर हूं; मैं ब्रह्म हूं। यह भाषाओं का भेद है। और भक्त की जो भाषा है, वह दो को | वह वेदांत की बड़ी गहरी बात कह रहा था। सूफी दृष्टि का ठीक स्वीकार करके चलती है। वह सारे जगत को दो में तोड़ लेती है, उदघोषक था। मैं ब्रह्म हूं; अहं ब्रह्मास्मि। अगर उसने उपनिषदों के एक तरफ भगवान को और एक तरफ भक्त को। और तब संबंध वक्त में हिंदुस्तान में कहा होता, तो हमने उसकी महर्षि की तरह निर्मित करती है। पूजा की होती। उसने जरा गलत वक्त चुना। उसने उनके बीच में कृष्ण कहते हैं, और दूसरे हैं, जो पृथक भाव से मेरी उपासना | कहा, जो कह रहे थे कि कोई यह न कहे कि मैं ब्रह्म हूं। क्योंकि करते हैं। जो कहते हैं मुझसे कि हम तुमसे अलग हैं। और कहते | जब ब्रह्म हम हो गए, तो फिर भक्ति का, मिलन का आनंद कहां इसीलिए हैं कि हम तुमसे अलग हैं, क्योंकि एक होने का मजा तभी | रहेगा? वह भक्तों के बीच ज्ञान की बात कहकर मुसीबत में पड़ा। आएगा, जब हम तुमसे अलग हैं। उन भक्तों ने कहा कि बंद करो यह बात! यह बात ठीक नहीं है; 252|

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