Book Title: Gita Darshan Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 353
________________ * कर्ताभाव का अर्पण * अगर तू अभी जल ही है...। कृष्ण नहीं कहेंगे कि राइपननेस इज़ आल। वे कहेंगे, सरेंडर इज़ जल जो है, बिलकुल प्राथमिक है। उससे नीचे फिर और कुछ आल; पक जाना नहीं, समर्पित हो जाना। और तब वे यह कहते हैं नहीं हो सकता। जल ही बनता है पत्ता। फिर बढ़ता है, तो पत्ता बन कि समर्पित होने के लिए फल के तक रुकने की भी कोई जरूरत जाता है फूल। फिर बढ़ता है, तो फूल बन जाता है फल। नहीं है। फल ही चढ़ेगा, ऐसा नहीं; पत्ता भी चढ़ जाएगा; पानी भी तो कृष्ण ने कहा कि तू हो चाहे पत्ता, चाहे फूल, चाहे फल; तू चढ़ जाएगा; फूल भी चढ़ जाएगा। जो जहां है, वहीं से अपने को जो भी हो, चढ़ा दे; तू जो भी हो, वैसा ही चढ़ जा। अर्पित कर दे; कल की प्रतीक्षा न करे; कल के लिए बात को टाले हममें से बहुत लोग कहते हैं-ये सब हमारी बेईमानी के हिस्से | न; स्थगित न करे। यह तो अर्थ है। हैं-हममें से बहुत लोग कहते हैं कि अभी तो कुछ है ही नहीं मेरे ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जो पत्ते-फूल चढ़ा आते हैं, वह पास, तो अभी परमात्मा को चढ़ाऊं भी क्या? बंद कर देना। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जब फूल चढ़ाएं, तब याद कभी भी नहीं होगा आपके पास, जिस दिन आप अनुभव कर | रखना कि इस फूल के चढ़ाने से संकेत भर मिलता है, हल नहीं सकें कि परमात्मा को चढ़ाने योग्य कुछ मेरे पास है। आप पोस्टपोन | | होता। जब पत्ता चढ़ाएं, और जब पानी ढालें परमात्मा के चरणों में, करते जा सकते हैं। जरूर ढालते चले जाना, लेकिन याद रखना, यह पानी ढालना ये तीन अवस्थाएं हैं, या चार। जल की अवस्था का अर्थ है कि | | केवल प्रतीक है, सिंबल है। ध्यान रखना कि कब तक इस पानी को आप में किसी तरह का विकास नहीं हुआ है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, | | ढालते रहेंगे? एक दिन अपने पानी को ढालने की तैयारी करनी है; उसे भी मैं स्वीकार कर लूंगा। मैं तो, जो भी चढ़ाया जाता है, उसे | | एक दिन अपना फूल चढ़ा देना है; एक दिन अपना फल समर्पित स्वीकार कर लेता हूं। सवाल यह नहीं है कि क्या चढ़ाया, सवाल | | कर देना है। यह है कि चढ़ाया, अर्पित किया। अगर तू पत्ता है, तो पत्ते की तरह उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया आ जा; अगर फूल हो गया है, तो फूल की तरह आ जा; अगर फल | हुआ सब कुछ मैं ही ग्रहण करता हूं! हो गया है, तो फल की तरह आ जा। जिस भी अवस्था में हो। यह तो हम देखते हैं कि फल हम चढ़ा आते हैं, पुजारी ग्रहण ये चार अवस्थाएं हैं चेतना की। पानी उस अवस्था को कहेंगे, | करता है। पक्की तरह पता है। यह भी हम देखते हैं कि फूल हम जल उस अवस्था को कहेंगे, जिसमें चेतना आपकी बिलकुल ही | |चढ़ा आते हैं, वे फिर बाजार में बिक जाते हैं। प्रिमिटिव है, बिलकुल प्राथमिक है। पत्र उस अवस्था को कहेंगे, एक मंदिर की दुकान को मैं जानता हूं, क्योंकि दुकानदार मेरे जिसमें आपकी चेतना ने थोड़ा विकास किया, रूप लिया, आकार | | परिचित हैं। उन्होंने मंदिर नया बना था, तब वह दुकान खोली थी। लिया। फूल उस चेतना को कहेंगे, जिसमें आपकी चेतना ने न | | कोई पंद्रह वर्ष पहले। तब उन्होंने पहली बार जो नारियल खरीदे थे, केवल रूप-आकार लिया, बल्कि सौंदर्य को उपलब्ध हुई। फल वह दुकान उनसे ही चल रही है। क्योंकि वे नारियल रोज चढ़ जाते उस अवस्था को कहेंगे, जिसमें आपकी चेतना सौंदर्य को ही | हैं; रात दुकान में वापस लौट आते हैं। फिर दूसरे दिन बिक जाते उपलब्ध नहीं हुई, और चेतनाओं को जन्म देने की सामर्थ्य को भी | हैं, फिर चढ़ जाते हैं; रात फिर वापस लौट आते हैं। उन्होंने दुबारा उपलब्ध हुई; पक गई। नारियल नहीं खरीदे, क्योंकि पुजारी रात बेच जाता है। नारियल के नीत्शे ने कहा है, राइपननेस इज़ आल-पक जाना सब कुछ है। | सारी दुनिया में दाम बढ़ गए, उनकी दुकान पर अभी तक नहीं बढ़े। लेकिनं कृष्ण नहीं कहेंगे यह। कृष्ण कहेंगे, पक जाना सब कुछ | सस्ते से सस्ते में वे देते हैं। नारियल के भीतर अब कुछ बचा भी नहीं है, चढ़ जाना सब कुछ है। नहीं होगा! नीत्शे ठीक कहता है, क्योंकि नीत्शे की दृष्टि में कोई ईश्वर नहीं| हमें पता है कि फूल हम चढ़ा आएंगे, तो वह उसको नहीं मिल है। तो नीत्शे कहता है, आदमी पक जाए, परा पक जाए। उसकी| सकता। जब तक कि चेतना का फूल न चढ़ाया जाए, तब तक बुद्धि, उसकी प्रतिभा, उसका व्यक्तित्व एक पका हुआ फल हो | | परमात्मा का भोजन नहीं हो सकता। जब तक हम स्वयं को ही न जाए, तो सब है। राइपननेस इज़ आल। बात पूरी हो गई। सुपरमैन | | चढ़ा दें, तब तक हम उसके हिस्से नहीं बनते। पैदा हो गया। महामानव पैदा हो गया। पक गया मनुष्य। कृष्ण कहते हैं कि मैं उस सबको ग्रहण कर लेता हूं, सबको, जो 327

Loading...

Page Navigation
1 ... 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392