Book Title: Gita Darshan Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 360
________________ गीता दर्शन भाग-4 * बात है कि चोर जितने नैतिक होते हैं अपने मंडल में, उतने साधु भी अपने मंडल में नैतिक नहीं होते ! उसका कारण है। उसका कारण है कि चोर भलीभांति समझता है कि अनैतिक होकर जब समाज में जीना इतना असंभव है और मुश्किल है, तो अगर हम अनैतिक भीतर भी हो गए, तो हमारा जो आल्टरनेटिव समाज है, जो वैकल्पिक समाज है, वह भी मुश्किल हो जाएगा। हम पूरे समाज के खिलाफ तो जी ही रहे हैं, वह मुश्किल हो गया है। अब अगर हम दस लोग भी, जो खिलाफ होकर जी रहे हैं, हम भी अगर अनैतिक व्यवहार करें; और रात में हम भी एक-दूसरे की जेब काट लें; और वायदा दें और पूरा न करें, तो फिर हमारा जीना असंभव हो जाएगा। इसलिए चोरों की अपनी नैतिक व्यवस्थाएं होती हैं। उनका अपना मारल कोड है। और ध्यान रहे, साधुओं से उनका मारल कोड हमेशा श्रेष्ठतर साबित हुआ है। उसका कारण है। उसका कारण है कि साधु तो समाज के साथ नैतिक होकर जीता है। उसे कोई अलग समाज नैतिक बनाकर जीने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए दो साधुओं को इकट्ठा करना मुश्किल मामला है। दो साधुओं को इकट्ठा करना मुश्किल मामला है। सौ-पचास साधुओं को इकट्ठा करना उपद्रव लेना है! लेकिन सौ चोरों को इकट्ठा करें, एक बहुत नैतिक समाज उनके भीतर निर्मित हो जाता है। बुरे आदमी की अपनी नैतिक व्यवस्था है; क्योंकि वह यह समझता है कि बिना उस व्यवस्था के जीना असंभव है। बाहर तो वह लड़ ही रहा है, अगर भीतर अपने गिरोह में भी लड़े, तो अति कठिनाई हो जाएगी। समाज को नैतिकता की व्यवस्था जारी रखनी ही पड़ेगी, क्योंकि आदमी इतना अज्ञानी है। लेकिन समाजं यह भी जोर देता है कि जब तक कोई नैतिक न होगा, तब तक वह धार्मिक नहीं हो सकता। यह वक्तव्य जरूरी है, लेकिन खतरनाक है और असत्य है । सचाई उलटी है। सचाई यह है कि जब तक कोई धार्मिक न होगा, तब तक उसकी नैतिकता आरोपित, थोपी हुई, ऊपर से लादी हुई होगी, अस्थाई होगी, आंतरिक नहीं होगी, आत्मिक नहीं होगी। धार्मिक होकर ही व्यक्ति के जीवन में नीति का आविर्भाव होता है। उस नीति का, जो किसी भय के कारण नहीं थोपी गई होती। न किसी प्रलोभन, न किसी पुरस्कार के लिए, न स्वर्ग के लिए; न नर्क के डर से, न स्वर्ग के लोभ से; न प्रतिष्ठा के लिए, न सम्मान के लिए, न सुविधा के लिए, बल्कि इसलिए कि भीतर अब नैतिक होने में ही आनंद मिलता है और अनैतिक होने में दुख मिलता है। लेकिन ऐसी नैतिकता का जन्म धर्म के बाद होता है। कृष्ण ने इसमें एक सूत्र कहा है, और वह सूत्र समझने जैसा है। वह कहा है, अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त हुआ, मुझे निरंतर भजता है, वह साधु मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। यहां साधु की परिभाषा में कृष्ण ने हैरानी की बात कही है। साधु से सामान्यतया हम समझते हैं, सदाचारी । साधु का अर्थ होता है, सदाचारी; असाधु का अर्थ होता है, दुराचारी। यहां कृष्ण कहते हैं, | अतिशय दुराचारी भी यदि मेरी भक्ति में अनन्य भाव से डूबता है, तो वह साधु है। यहां साधु की पूरी परिभाषा बदल जाती है। साधु का अर्थ ही होता है, सदाचारी। यहां कृष्ण कहते हैं, अतिशय दुराचारी भी साधु कहा जाने योग्य है ! फिर साधु की क्या परिभाषा होगी ? कृष्ण कहते हैं, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है - ए फर्म डिटरमिनेशन | एक यथार्थ निश्चय यहां साधु की परिभाषा है। और वह यथार्थ निश्चय क्या है? वह यथार्थ निश्चय है, प्रभु के स्मरण का । वह यथार्थ निश्चय है, प्रभु के प्रति समर्पण का । वह यथार्थ निश्चय है, उसकी अनन्य भक्ति का । यहां दो-तीन बातें हम समझ लें। एक तो यथार्थ निश्चय वाले को साधु कहना बड़ी नई बात है। आपको इस सूत्र को पढ़ते वक्त | खयाल में न आई होगी। क्योंकि यह तो कृष्ण यह कह रहे हैं कि असाधु भी साधु है, अगर वह यथार्थ निश्चय वाला है। असाधु का | मतलब होता है, दुराचारी । असाधु को भी साधु जानना, अगर वह | यथार्थ निश्चय वाला है, और उसका निश्चय मेरी तरफ गतिमान हो गया है। दो बातें । यथार्थ निश्चय का क्या अर्थ है? यथार्थ निश्चय | के दो अर्थ हैं। एक, समग्र हो, उसके विपरीत कोई भी भाव मन में न हो, तो ही यथार्थ होगा, अन्यथा डांवाडोल होता रहेगा। पूरे मन से लिया गया हो, पूरे प्राणों ने हामी भर दी हो। अगर पूरे प्राणों ने हामी भर दी हो, तो वह निश्चय यथार्थ हो जाएगा। और अगर पूरे प्राणों ने हामी न भरी हो, तो निश्चय काल्पनिक रहेगा, वास्तविक नहीं होगा । और मन डोलता रहेगा; और हम ही बनाएंगे और हम ही मिटाते रहेंगे; एक हाथ से निश्चय की ईंटें रखेंगे, दूसरे हाथ से निश्चय की ईंटों को गिरा देंगे। दोनों तरफ से हम काम करते रहेंगे, 334

Loading...

Page Navigation
1 ... 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392