Book Title: Gita Darshan Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 371
________________ नीति और धर्म * घंटा मंच पर आकर एक बात सिद्ध करना चाहते हैं । वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं मूर्ख हूं। इसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं बिना सिद्ध किए इसे मान लेता हूं। इसे सिद्ध तो तब करना पड़े, जब मैं कहूं कि मैं नहीं हूं या उनकी बात को गलत कहूं। मैं मूर्ख हूं। क्योंकि अगर मैं मूर्ख न होऊं, तो उन जैसे बुद्धिमान जनों को समझाने की कोशिश ही क्यों करूं । सहज-साफ ही है। इसको सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि सिद्ध करने में समय व्यय करना है। मैं मान ही लेता हूं। कृष्ण के वक्त में अगर वे होते, तो कृष्ण ने एक सूत्र अर्जुन से और कहा होता। उन्होंने कहा होता, हे कौन्तेय, जिनके दिमाग के स्क्रू थोड़े ढीले हैं, उनमें भी मैं हूं। वह कृष्ण नहीं कह पाए, यह एक नुकसान हुआ। उनकी मौजूदगी जरूरी थी। गीता ज्यादा समृद्ध हुई होती। उसमें एक सूत्र और उपलब्ध हो जाता। लेकिन यह बात पक्की है, स्क्रू ढीले हों कि ज्यादा कसे हों, मैं उनके भीतर हूं। इसमें - शुबहा नहीं है। इस तरह की बातें हमारे मुल्क के मन में न मालूम कैसे-कैसे घूमती रहती हैं। इन सारी बातों ने हमारे मुल्क को एकदम क्षुद्रत हालत में खड़ा कर दिया है। सोचें विराट को खोजें विराट को; व्यर्थ की बातों में समय जाया न करें। लेकिन हम समझते हैं कि भारी संकट आ गया। किसी ने लिख दिया कि दशरथ नपुंसक थे। अब वह बेचारा कुछ खोज - बीन कर रहा होगा। गलत होगा, सही होगा । किन्हीं को उत्सुकता हो, वे सिद्ध करने में लगें। पर बड़ा मुश्किल मामला है सिद्ध करना कि थे कि नहीं थे। बहुत कठिन है। पर मुझे तो प्रयोजन भी नहीं है। जिनको प्रयोजन है, वे भी क्यों इतने आतुर हैं; कुछ समझ में नहीं आता ! इस तरह की बातों को जरा भी मूल्य देने की जरूरत नहीं है। कोई लिखे, तो भी देने की जरूरत नहीं है। उसको तूल देने की भी जरूरत नहीं है कि शोरगुल मचाओ। उस शोरगुल से और प्रचार होता है कि यह क्या मामला है! इन सबमें पड़ने की जरा भी जरूरत नहीं है। धार्मिक आदमी का यह लक्षण नहीं है। धार्मिक आदमी को एक ही चिंता है कि किसी भांति उसके जीवन का एक-एक पल रीता जा रहा है, उस रीतते हुए जीवन में वह खाली हाथ ही लौट जाएगा? या कि उस रीतते हुए जीवन में प्रभु की कोई झलक मिलनी संभव है? मैं उसी दृष्टि से सब बोल रहा हूं। आप पूछ लेते हैं, आवश्यक 345 नहीं है कि मैं जवाब दूं। आप पूछ लेते हैं, आपका काम पूरा हो गया। मुझे लगेगा कि इससे आपकी साधना में कोई सहायता मिलेगी, तो ही जवाब दूंगा । कुछ ऐसे सवाल लोग पूछते हैं, जो उनके निजी, वैयक्तिक हैं। अब एक व्यक्ति पूछ लेता है। यहां तीस-चालीस हजार आदमी बैठे हों, इनके तीस हजार घंटे खराब करना एक व्यक्ति के निजी प्रश्न के लिए बेमानी है। तीस हजार घंटे बहुत बड़ा वक्त है। अगर एक आदमी की जिंदगी, तो दस साल की जिंदगी एक आदमी की खतम होती है, चालीस हजार घंटे अगर हम खराब करें तो । तो एक आदमी कुछ पूछ लेता है, उसकी व्यक्तिगत रुचि है, उसे मेरे पास आ जाना चाहिए। यहां जोर देने की जरूरत नहीं है। और एक बात पक्की समझ लें कि आपने पूछा, मैंने जवाब नहीं दिया, उसका कुल कारण इतना है कि मैं नहीं समझता कि इतने लोग जो यहां इकट्ठे हैं, इनके लिए उस जवाब की कोई भी जरूरत है। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट बैठेंगे। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं।

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