Book Title: Gita Darshan Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 293
________________ * मैं ओंकार हूं * कहता है, ठीक, मेरा जो पहाड़ पर बंगला है, वह मैं चाहता हूं कि | | हूं, निर्माता मैं हूं, और तुझे लगता है कि पाप है! गवाही मैं हूं, तेरी मेरी बड़ी लड़की को दे दिया जाए। | अंतिम गवाही मैं हूं; और तू कुछ भी करेगा, मैं ही तेरे भीतर उसकी पत्नी कहती है; बड़ी लड़की को? उसके पास काफी है! करूंगा, तू जाने या न जाने। लेकिन तु कहता है कि यह मुझे लगता मेरी छोटी लड़की के लिए एक मकान की पहाड़ पर जरूरत है। वह | है, पाप है! तू कहता है कि मेरे मन को पीड़ा होती है, कि अपने ही उसको दे देना उचित है। | प्रियजनों से कैसे लडूं! मुल्ला और भी थोड़ी देर तक आंख बंद किए पड़ा रहता है। फिर । वह कृष्ण कहते हैं, सबका आधार मैं हूं, सबका पिता मैं हूं, आंख खोलता है और कहता है कि मेरी जो बड़ी कार है, वह मेरे | | सबका भविष्य मैं हूं, लेकिन तू अपने को बीच में क्यों ला रहा है? मित्र मर गए हैं, उनका बेटा है, उसको दे देना चाहता हूं। मतलब यह है कि अहंकार अपने को मालिक समझता है, और उसकी पत्नी कहती है, उस पर तो मेरी बहुत दिन से आंख है। अहंकार अपने को निर्णायक समझता है। और अहंकार समझता है वह मैं किसी को नहीं दे सकती हूं। वह तो मेरे छोटे बेटे के काम | | कि मैं ही निर्णय करूंगा, वैसा ही मुझे चलना है। अहंकार समर्पण में आने वाली है। | करने को तैयार नहीं है। मुल्ला तब आंख बंद करके कहता है कि एक बात पूर्वी आखिरी? समर्पण तो तभी हो सकेगा, जब हमें पता चले कि न मैंने मुझे मैं यह जानना चाहता हूं, मर कौन रहा है? मैं मर रहा हूं कि तू मर | | बनाया है, न मैं स्वयं को सम्हाले हुए हूं। अभी यह शब्द मेरे मुंह रही है? तू कम से कम इतना धीरज तो रख कि मुझे मर जाने दे। फिर | | से निकलता है, दूसरा न निकले, उसे भी निकालने का मेरे पास तुझे जो करना हो, करना। इतना तो मुझे पता ही है कि जब जिंदगी | | कोई उपाय नहीं है। एक सांस आती है, और फिर न आए, तो एक अपनी न हुई, तो वसीयत क्या अपनी होने वाली है! | सांस लेने का भी कोई उपाय नहीं है। इतना निरुपाय, इतना मौत सब छीन लेती है। लेकिन फिर भी आदमी वसीयत तो कर | | असहाय, इतना न होने के बराबर मैं हूं। लेकिन फिर भी मैं निर्णय जाना चाहता है। यह मरने के बाद भी अपना दावा रखने की चेष्टा | | करता हूं कि मैं यह करूंगा और यह नहीं करूंगा, और यह ठीक है। जो भी हम इकट्ठा कर लेंगे, मौत छीन लेगी। सिर्फ एक संपदा | | है, और यह गलत है! निर्णायक मेरा अहंकार बनना चाहता है। है, जो मौत नहीं छीन पाती है। वह संपदा परमात्मा की है। वह | कृष्ण उसे यही समझा रहे हैं कि अगर तू गौर से देखेगा, तो संपदा प्रभु के अनुभव की है। वह संपदा उस स्वभाव की है, जो नीचे-ऊपर सब दिशाओं में सब भांति मुझे छाया हुआ पाएगा। और हम में ही छिपा है। वह उस ओंकार की है, जो सदा है और कभी अच्छा हो कि तू अपनी यह मालकियत छोड़ दे। यह मालकियत ही छीना नहीं जा सकता। तेरा दुख और तेरा पाप है। कृष्ण कहते हैं, गंतव्य मैं हूं; सबका स्वामी, सबका साक्षी, | एक ही पाप है, स्वयं की अस्मिता को, अहंकार को मजबूत सबका वास स्थान! जहां सब रह रहे हैं, वह मैं हूं। जो सबको चला | किए जाना। और एक ही पुण्य है, स्वयं की अस्मिता को, अहंकार रहा है, वह मैं हूं। और जो सबको देख रहा है, वह भी मैं हूं। शरण | को पिघलाते चले जाना। एक घड़ी आ जाए, जिस दिन मैं न रहूं, लेने योग्य, जिसकी शरण तुम आओ, ऐसा भी मैं हूं। हित करने | | मेरा बोध न रहे, तो उस दिन मेरे भीतर जो बोलेगा, जो चलेगा, जो वाला; उत्पत्ति-प्रलय-रूप। जन्म मुझसे तुम्हारा हुआ, सम्हाला मैंने | उठेगा, जो करेगा, वह परमात्मा है। उस दिन न मेरा कोई पाप है, तम्हें, खोओगे भी तुम मझमें ही। सबका अंतिम बीज कारण मैं हं।। न मेरा कोई पण्य है। उस दिन न मेरा कोई कर्तव्य है और न कछ यह कृष्ण क्यों कह रहे हैं अर्जुन को? वह इसलिए कह रहे हैं | अकर्तव्य है। उस दिन जो होगा, वह सहज होगा; जैसे श्वास कि अर्जुन तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। चलती है, खून बहता है, हवाएं चलती हैं, सूरज निकलता है। उस यह अंतिम सूत्र ठीक से समझ लें। दिन मेरी कोई जरूरत ही नहीं है। वे यह कह रहे हैं, तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। बनाया मैंने, | कृष्ण उस दिशा में अर्जुन को इशारा कर रहे हैं कि तू थोड़ा सम्हाला मैंने, मिटाऊंगा मैं; तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। | समझ। तू यह फिक्र छोड़ कि तू इनका मारने वाला है, कि तू इनका वह अर्जुन कह रहा है कि युद्ध में मैं नहीं जाना चाहता हूं, क्योंकि | | बचाने वाला हो सकता है। तू यह भी फिक्र छोड़ कि तेरे ऊपर यह मुझे लगता है, यह पाप है। कृष्ण कहते हैं, मालिक मैं हूं, साक्षी मैं | निर्णय है कि यह युद्ध शुभ है या अशुभ है। तू जरा चारों तरफ गौर [2671

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