________________
मानी जा सकती है, क्योंकि लोक-कल्याण के लिए कर्म स्थितप्रज्ञ अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् ही सफलता पूर्वक किए जा सकते हैं।
यहाँ प्रश्न यह है : कर्मयोगी के कर्म करने की शैली क्या है? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि कर्मयोगी अनासक्त भाव से कर्म करता है, इसलिए प्रासक्ति से उत्पन्न होने वाले दोष से वह मलिन नहीं किया जाता हैं,जैसे कमल का पत्ता जल के द्वारा मलिन नहीं किया जाता है (इ)। सामान्य मनुष्य की आसक्ति स्वार्थपूर्ण कर्म-फल के प्रति होती है। उस फल से प्रेरित होकर वह कर्म करता है। किन्तु कर्मयोगी का (जो आत्मा में ही तृप्त है और आत्मा में ही संतुष्ट है) किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं होता है (27, 28) । वह कर्मों के स्वार्थपूर्ण फल द्वारा प्रेरित नहीं होता है (१) । अतः उसके सारे कर्म परार्थ के लिए ही होते हैं। वह परार्थ के लिए किए गए कर्मों के फलों को सोचता-विचारता अवश्य है, पर मासक्ति और स्वार्थ को सामने रखकर नहीं। प्रकृति की विराटता को देखकर वह उन कर्मों के फलों में आसक्ति नहीं करता है (9) । उसका मानना है कि कर्म में ही उसका अधिकार है कर्मों के फलों में नहीं (9) । अतः फलों में मासक्ति व्यर्थ है । वह तो अनासक्त होकर लोक-कल्याण के लिए ही कर्म करता है। इस तरह से उसके सारे कर्म मनासक्त भाव से किए गए होने के कारण 'प्रकर्म' ही हैं। इस कारण से वह बंधन में नहीं फंसता है । इस प्रकार वह 'कर्म' में 'मकर्म' को देखता है (42) । उसके लिए तो 'प्रकर्म' ही वास्तविक 'कर्म' है। मतः वह 'मकर्म' में भी 'कर्म' को देखता है (42) । गीता का
चयनिका
vii ]
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org