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साथ साथ गीता हमारा ध्यान एक ऐसे प्रादर्श की ओर आकर्षित करती है जिसके अनुसार व्यक्ति को प्रात्मानुभव की सर्वोच्च ऊंचाइयों पर पहुंचने के पश्चात् भी लोक-कल्याण में लगा रहना चाहिए । वह प्रात्मानुभवी व्यक्ति लोक-कल्याण के कमों को न छोड़े। गीता के अनुसार मात्मानुभव और लोक-कल्याण एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं । सच तो यह है कि पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् किए गए कर्म ही व्यक्ति व समाज को सही दिशा प्रदान कर सकते हैं । गीता ने ऐसे व्यक्ति को कर्मयोगी कहा है। कर्मयोगी द्वारा किए गए (लोक-कल्याण के) कर्म उसको बन्धन में नहीं डालते हैं(51)। उसमें प्रशान्ति पैदा नहीं करते हैं और वह कर्मों को करने में मानसिक तनाव से मुक्त रहता है। गीता की निगाह में एक ऐसा योगी भी है जो प्रात्मानुभव की ऊँचाइयों पर तो पहुँच जाता है, किन्तु कर्म को त्याग देता है। गीता ने इसी को ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी कहा है। कर्मयोगी और ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी-दोनों ही प्रात्मानुभव की दृष्टि से पूर्ण समान हैं । वे अन्तरंगरूप से एक ही हैं (53)। जो उच्चतम अवस्था ज्ञानयोगी प्राप्त करता है, वही उच्चतम अवस्था कर्मयोगी द्वारा प्राप्त की जाती है (52, 54)। अन्तर केवल यह है कि कर्मयोगी लोककल्याण के कर्मों में संलग्न रहता है, किन्तु ज्ञानयोगी ऐसे कर्मों को भी छोड़ देता है और कर्मसंन्यासी बन जाता है । इस तरह से बाह्य अवस्था में अन्तर पैदा होता है, अन्तरंग अवस्था में दोनों में कोई भेद नहीं है (53)। ___ . यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि गीता ने उच्चतम अवस्था को ही प्रात्मानुभव की अवस्था, ब्रह्मानुभव की अवस्था, त्रिगुणा
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