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की इच्छा में परिणत होकर अपनी तृप्ति की दिशा में सक्रिय हो. जाता है । इस तरह से इस जगत में व्यक्ति रागात्मक कर्म और द्वेषात्मक कर्म करने में लगा रहता है। प्राणियों के साथ-साथ व्यक्ति वस्तुओं से भी राग-द्वेषात्मक संबंध जोड़ लेता है । यही आसक्ति है। संसारी प्राणी कर्मों में प्रासक्त होकर कर्म करते हैं (34) । यहाँ गीता का कहना है कि अनासक्त ज्ञानी (कर्मयोगी) लोक-कल्याण को करने के लिए कर्म करे (34)। इससे प्रासक्त व्यक्तियों की मति में कर्मों के प्रति अरुचि पैदा नहीं होगी। उनको समझाया जा सकेगा कि वे आसक्ति को त्यागकर कल्याणकारी कर्म करें (35)। इससे समाज में आसक्ति से उत्पन्न होनेवाली बुराइयाँ समाप्त हो सकेंगी और समाज में विकास की गति तीव्र होगी । इसलिए गीता का शिक्षण है कि कर्मयोगी (अनासक्त व्यक्ति) सब कल्याणकारी कर्मों का भली-भाँति माचरण करता हुमा दूसरों को भी उनका प्रम्यास करावे (35) । गीता के शिक्षण से यह फलित होता है कि ज्ञानयोगी संसारी. प्राणियों में कर्मों के प्रति अरुचि उत्पन्न करनेवाला होगा और यह बात लोक के लिए हानिकारक सिद्ध होगो । अतः कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है
.. 3) यह सच है कि जो व्यक्ति आत्मा में ही तृप्त है, जिसकी प्रात्मा में ही प्रीति है तथा जो मात्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए इस लोक में कोई कर्तव्य वर्तमान नहीं है (27)। उसे अपने लिए सब कुछ प्राप्त नहीं करना है। उसमें अब कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं बचा है (28)। फिर भो गीता का शिक्षण है कि ऐसा व्यक्ति परार्थ के लिए ही कर्म करे (29)। इससे संसार
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