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5. हे अर्जुन ! यह विवेचना तेरे लिए सांख्य (शुद्ध-ज्ञान द्वारा
आत्मतत्त्व-विवेक जागृत करने) के संबंध में की गई (है); अब इस (विवेचना) को (तू) योग (अनासक्तिपूर्वक कर्म करने) के विषय में सुन, जिस समझ से भरा हुआ (तू) कर्म-बन्धन को भली प्रकार से नष्ट कर देगा।
यहाँ (अनासक्तिपूर्वक कर्म करने के लिए) (किया गया) प्रयत्न व्यर्थ नहीं होता है (तथा) (इससे) कोई दोष (भी) उत्पन्न नहीं होता है। इस धर्म (अनासक्त वत्ति) का बहत थोड़ा सा (अभ्यास) भी अत्यधिक (मानसिक) संकट से
(हमको) बचा देता है। 7. हे अर्जुन ! इस दशा में (अनासक्तिपूर्वक कर्म करने में)
प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर (और) ऊर्जावान् (होती है) । तथा निस्सन्देह प्रमादी गामक्तिपूर्वक कर्म करने वाले) (व्यक्तियों) की बुद्धिया अन्तरहित बहुत भेदवाली
(होती हैं)। 8. विषयों तथा वैभव में आसक्त और उस आसक्ति के कारण
वशीभूत व्यक्तियों की बुद्धि (अस्थिर होती है)। (इसलिए) (उनके द्वारा) साधना-मार्ग में स्थिरतामयी (बुद्धि) धारण नहीं की जाती हैं।
9. तेरा कर्म में ही अधिकार (है); (कर्मों के) फलों में (तेरा
अधिकार) कभी नहीं है; (इसलिए) (तू) कर्मों के (स्वार्थपूर्ण) . फल द्वारा प्रेरित होने वाला मत (हो); तेरा कर्म न करने ____में (भी) अनुराग न होवे ।
चयनिका
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