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गीता -- चयनिका
जैसे जीव के वर्तमान शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा (देखा जाता है), वैसे ही (मृत्यु के पश्चात् इस जीव के लिए) दूसरे शरीर का मिलना (समझा जाना चाहिए ) । ज्ञानी (व्यक्ति) उसमें व्याकुल नहीं होता है ।
यह ( आत्मा ) कभी उत्पन्न नहीं होता है और ( कभी ) नष्ट नहीं होता है । तथा ( यह आत्मा ) ( शून्य से ) उत्पन्न होकर नये रूप से होने वाला नहीं है । ( वस्तुतः ) यह ( श्रात्मा ) अनादि ( है ), अनश्वर ( है ), (और) चिरस्थायी (है) । ( इसकी बात ) ( प्रत्यन्त) पुरानी ( है ) । नाश किए जाते हुए शरीर के होने पर ( भी ) (यह ) नष्ट नहीं किया जाता है।
जैसे (कोई ) मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये ( कपड़ों) को धारण करता है, वैसे ही जीव जर्जर 'शरीरों को छोड़कर दूसरे नये (शरीरों) में प्रवेश करता है ।
इस (आत्मा) को शस्त्र नहीं काटते हैं; इसको प्राग नहीं जलाती है; इसको जल- बूदें गीला नहीं करती हैं; तथा इसको हवा नहीं सुखाती है ।
चयनिका
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