Book Title: Geeta Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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170. अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसभावृताः [(अनेकचित्तविभ्रान्ताः)+
(मोहजालसमावृताः)] अनेकचित्तविभ्रान्ता. [(अनेक) वि-(चित्त)(वि-भ्रम्-विभ्रान्त) कृ 1/3]. मोहजालसमावृताः [(मोह)(जाल)-(सम्-प्रा-वृ+समावृत) कृ 1/3] प्रसक्ताः (प्र-सञ्-प्रसक्त)
कृ1/3. कामभोगेषु [ (काम)-(भोग) 7/3] पतन्ति (पत्) व 3/3 प्रक. नरकेऽशुचौ [(नरके)+ (अशुचौ) ] नरके (नरक) 7/1. अशुची (अशुचि) 7/1 वि.
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गीता
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