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कहना ह कि कर्म-फल में प्रासक्ति को छोड़कर जो सदैव आत्मा में तृप्त है और जो तृप्ति के लिए किसी पर निर्भर नहीं है, वह कर्म में लगा हुआ भी कुछ नहीं करता है (44)। जिसके सभी कर्म आसक्ति से उत्पन्न फल की आशा से रहित हैं, जिसने कर्मों की मासक्ति को ज्ञानरूपी अग्नि जलाद्वारा दिया है, उसको विद्वान (कर्म) योगी कहते हैं (43)। जैसे प्रज्वलित अग्नि लकड़ियों को राखरूप कर देती है वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि कर्मासक्तियों को नष्ट कर देती है (47) । साधारण जन अपनी कामनामों में लिप्त रहने के कारण कर्म-फल में आसक्त होता है । अतः वह मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है, किन्तु कर्मयोगी कर्मफलासक्ति को छोड़ने के कारण पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है और प्रसन्नतापूर्वक रहता है (57, 58) । यहाँ यह समझना चाहिए कि जिसके द्वारा कर्म-फल की आशा नहीं त्यागी गई है वह कर्मयोगी नहीं हो सकता है, कर्म-फल की प्राशा का त्याग करने वाला व्यक्ति ही योगारुढ (कर्मयोगी) कहा जाता है (65, 66) ।
- यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि समता की भूमिका में ही अनासक्तता पनपती है । जिसका मन समता में स्थिर है, उसके द्वारा ही आसक्ति पर विजय प्राप्त की जा सकती है (60) । समतापूर्वक कर्मों को करना ही कमों को करने में कुशलता कही गई है (10, 11) । समता प्राप्त होने पर ही मानसिक तनावमुक्तता उत्पन्न होती है । कर्मयोगी समतावान होता है, इसलिए अनासक्तिपूर्वक कर्म करता है । कर्मयोगी फलासक्ति को छोड़कर सफलता और असफलता में तटस्थ होकर तथा समता में विद्यमान रहकर कर्म करता है (10) । वह तनाव उत्पन्न करनेवाले सुकर्म
1. विस्तार के लिए देखें 'अष्टपाड-चयनिका' की प्रस्तावना । viii ]
गीता
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