Book Title: Dharmopadesh Shloka
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 117
________________ * प्रास्था * [ १०१ ] विनाऽऽस्थामाहतो धर्मः, फलप्राप्त्यै भवेन्न हि । सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि, विद्येवात्र द्विजन्मनः ॥ १०१ ॥ पदच्छेदः-विना आस्थाम् आर्हतः धर्मः फलप्राप्त्यै भवेत् नहि सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि विद्या इव प्रत्र द्विजन्मनः । अन्वयः-प्रास्थाम् विना पार्हतः धर्मः, अत्र द्विजन्मनः सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि विद्या इव फल-प्राप्त्यै न हि भवेत् । शब्दार्थः-प्रास्थाम् =श्रद्धा के, विना=सिवाय, पार्हतः=अरिहन्त भगवान सम्बन्धी, धर्मः=धर्म, अत्र इस लोक में, द्विजन्मनः ब्राह्म को, सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि= सिद्ध द्वारा दी गयी आकाशगामी विद्या की तरह, फलप्राप्त्यै फलप्राप्ति के लिए, न हि भवेत् नहीं होवे । श्लोकार्थः-श्रद्धा के सिवाय अरिहन्त भगवान सम्बन्धी धर्म इस लोक में ब्राह्म को सिद्ध द्वारा दी गयी आकाशगामी विद्या की तरह फलप्राप्ति के लिए नहीं होवे । संस्कृतानुवादः-श्रद्धां विनाऽऽहतो धर्मः अत्र विप्रस्य सिद्धप्रदत्ताऽऽकाशगामीतिविद्येव फलप्राप्त्यै नहि भवेत् ।। १०१ ॥ ( १०२ )

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