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[ १०४ ] सुचिरं सत्यवक्ताऽपि, वदन्मिथ्योपरोधतः । प्रयाति नरकं स्वार्थ-भ्र शकृद् वसुराजवत् ॥ १०४॥
पदच्छेदः-सुचिरं सत्यवक्ता अपि वदन् मिथ्या उपरोधतः प्रयाति नरकं स्वार्थभ्रशकृद् वसुराजवत् ।
अन्वयः-सुचिरं सत्यवक्ता अपि उपरोधतः मिथ्या वदन् वसुराजवत् स्वार्थभ्र शकृद् सन् नरक प्रयाति ।
शब्दार्थः-सुचिरं दीर्घ समय तक, सत्यवक्ता सत्य बोलने वाला, अपि भी, उपरोधतः=अन्य के उपरोध से, मिथ्या=असत्य, वदन्=बोलता हुआ, वसुराजवत् वसु राजा की तरह, स्वार्थभ्रशकृद् अपने स्वार्थ को नष्ट करता हुआ, नरकं = नरक को, प्रयाति=जाता है।
श्लोकार्थः-दीर्घ समय तक सत्य बोलने वाला व्यक्ति भी अन्य के आग्रह से झूठ बोलने पर अपने स्वार्थ को नष्ट करते हुए वसुराजा की तरह नरक को जाता है ।
संस्कृतानुवादः-सुचिरं सत्यवादी अपि अन्योपरोधतोऽ सत्यं कथयन् वसुराजवद् स्वार्थभ्रशकृद् सन् नरकं प्रगच्छति ।। १०४ ॥
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