Book Title: Dharmaratnaprakaranam
Author(s): Shantisuri,
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
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राचर्यते । तथा तूलीमसूर कादीनामपि परिभोगः कैश्विद्विधीयते । तत्र तूलीमसूरके प्रतीते आदिशब्दात्कांस्यताम्रपात्रादिपरिग्रहः, एतान्यपि यतीनां न कल्पन्ते । यतोऽभाणि -- “ अञ्जीवेहिवि जेहिं गहिएहि असंजमो न ते गण्हे । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए य ॥ १ ॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संyडफलए तहा छिवाडी य । एवं पोत्थयपणयं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ २ ॥ बाहल्लपुहतेहिं गंडी पोत्थोउतुलगो दीहो। कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयव्वो ॥ ३ ॥ चउरंगुल दीहो वा बट्टागिइ मुट्ठिपोत्थगो अहवा । रंगुलीही चिचसो होइ विभेओ ॥ ४ ॥ सपुडगो दुगमाई फलगावोच्छं छिवाडिमेताहे । तणुपत्तूसियरूवो होड़ छिवाडी बुहा बेति ॥ ५ ॥ दीहो वा इस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पवाहल्लो। तं मुणियसमयसारा छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ ६ ॥ दुविहं च दूपपणगं समासओ तंपि हाइ नायं । अप्पडिलेहियद्सं दुप्पडिलेहं च विनेयं ॥ ७ ॥ अप्पडिलेहियद्से तूली उवहाणगं च नायव्वं गंडुवहाणालिंगिणिमसूरए चैव पोत्तमए ॥ ८ ॥ पल्हवि कोयवि पावार नवयए तह य दाढीयाली य । दुप्पडिलेहियद्से एयं बीयं भवे पणगं ||९|| हवि हत्थूत्थरणं कोयवओ रूयपूरिओ पडओ । दढियालि धोयपोती सेसपसिद्धा भवे भेया ॥ १० ॥ तणपणगं पुण भणियं जिणेहि दुट्टट्टकम्ममहणेहिं । सालीनी हीकोद्दक्रालयरने तणाई च ॥ ११ ॥ अयएलगाक्मिहिसी मईणमजिणं तु पंचमं होइ । तलिगाखल्लगबद्धे फोसगकत्तीयबीएण ॥ १२ ॥ तह वियडहिरण्णाईयाई न गिण्दड असंजमो माहु । सुयपडिकुङ्कं सव्वं न हु कप्पड़ चरणजुत्ताणं ॥ १३ ॥ जाईफलपूगाई साहूण अकप्पिया अचित्तावि । रागंग जेण भवे न तेसि दाणं न वा गहणं ॥ १४ ॥ ८७॥
अथ प्रस्तुतमुपसंहरन्नाह -
इच्चाई असमंजस मणेगहा खुइचिट्ठियं लोए । बहुएहिवि आयरियं न पमाणं सुद्धचरणाणं ॥ ८८ ॥

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