________________ जीवन के लिए वमेन को पुनः पीना चाहता है, उससे तो तेरा मरण हो जाना ही अच्छा है। टीका-इस गाथा में उपालम्भपूर्वक श्री राजीमती का श्री रथनेमि को समझाना है। गाथा का जो अर्थ ऊपर किया गया है वह पहले चरण में तेऽ जसोकामी' पद में अकार का प्रश्लेष मानकर किया गया है। कोई-कोई अकार-प्रश्लेष नहीं भी मानते। उस पक्ष में भी उक्त पद का सुन्दर अर्थ घट जाता है। तब उसका असूयापूर्वक आमन्त्रण अर्थ होगा।जैसे- 'हे यश चाहने वाले! अर्थात् तू यश की चाहना करता है और ऐसा तेरा विचार है। इसलिए तुझे धिक्कार है।' ____मरण श्रेयस्कर इंसलिए कहा जाता है कि अकार्य-सेवन से व्रतों का भंग होता है। व्रतों की रक्षा करता हुआ जीव यदि मरण को प्राप्त हो जाए तो वह आत्म-घाती नहीं कहलाता, किन्तु 'व्रत-रक्षक' कहा जाता है। गाथा में "धिरत्थु' और 'सेयं'-'धिगस्तु' और 'श्रेयः' दोनों शब्द साथ-ही-साथ काम में लाए गए हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक संयमी पुरूष को जिस प्रकार काम वासना धिक्कार का हेतु है, उसी प्रकार संयम की रक्षा के लिए उसका मरण हो जाना कल्याण का कारण है। ‘धिरत्थु' का अर्थ धिक्कार और 'सेयं' का अर्थ कल्याण है। अत: आचार्य ने अन्वय और व्यतिरेक दोनों हेतुओं से पक्ष-समर्थन किया है। उत्थानिका-श्री राजीमती ने और भी कहा:अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर॥८॥ अहं च भोगराजस्य, त्वं चासि अन्धकवृष्णेः। मा कुले गन्धनौ भूव, संयमं निभृतश्चर॥८॥ पदार्थान्वय-अहं-मैं भोगरायस्स-उग्रसेन की पुत्री हूँच-और तं-तू अंधगवण्हिणोसमुद्रविजय का पुत्र असि-है कुले-उत्तम कुल में (उत्पन्न हुए हम दोनों) गंधणा-गन्धन सर्प के समान मा होमो-न हों, किन्तु निहुओ-मन को स्थिर रखते हुए संजमं-संयम को चर-पाल। मूलार्थ हे रथनेमि ! मैं उग्रसेन राजा की पुत्री हूँ और तू समुद्रविजय राजा का पुत्र है। अतः उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हम दोनों, गन्धन सर्प के समान न हों; किन्तु तू चित्त निश्चल कर और संयम पाल। ___टीका-इस गाथा में श्री राजीमती ने अपने और श्री रथनेमि के कुल की प्रधानता पर श्री रथनेमि का ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि शुद्धवंशीय पुरुष प्रायः अकृत्यों से बच जाता है। वह कष्ट सहन में कुछ स्वाभाविक ही धीर होता है। गाथा में 'भोगरायस्य' और 'अंधगवण्हिणो' दोनों षष्ठ्यन्त पद दिए हैं जो कि सम्बन्ध-वाचक हैं, लेकिन गाथा में उसका सम्बन्धी कोई पद नहीं दिया है। इस लिए उनके साथ क्रम से 'पुत्री' और 'पुत्र' शब्द का अध्याहार पारिशेष्यात् कर लेना चाहिए। भोगराज का अर्थ 'उग्रसेन' और अन्धकवृष्णि का अर्थ 'समुद्रविजय' होता है। यथा- 'अंधगवण्हि-पुं० (अन्धकवृष्णि) समुद्रराजानु अपर नाम, पृष्ठ 12 / भोगराय--पुं० (भोगराज) भोगकुलना एक राजा, यदुवंशी उग्रसेन राजा, पृष्ठ 596 / ' अर्ध मागधी गुजराती . कोष। द्वितीयाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [20