Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 533
________________ संवच्छरं वावि परं पमाणं, बीअंच वासंन तहिं वसिज्जा। सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ॥११॥ संवत्सरं वाऽपि परं प्रमाणं, ___ द्वितीयं च वर्षं न तत्र वसेत्। सूत्रस्य मार्गेण चरेद् भिक्षुः, सूत्रस्याओं यथा आज्ञापयति॥११॥ पदार्थान्वयः-संवच्छरं-वर्षाकाल में चार मास वावि-अन्य ऋतुओं में एक मास रहने का परं-उत्कृष्ट पमाणं-प्रमाण है, अतः जहाँ पर चतुर्मास किया हो वा मास कल्प किया हो तहिंवहाँ पर बीअं-द्वितीय वासं-चतुर्मास वा मास कल्प न वसिज्जा-नहीं रहना चाहिए; क्योंकि सुत्तस्स-सूत्र का अत्थो-अर्थ जह-जिस प्रकार आणवेइ-आज्ञा करे, उसी प्रकार भिक्खू-साधु सुत्तस्स-सूत्र के मग्गेण-मार्ग से चरिज-चले। मूलार्थ-एक स्थान पर वर्षा ऋतु में चार महीने और अन्य ऋतुओं में एक महीना ठहरने का उत्कृष्ट प्रमाण कथन किया है। अतः उसी स्थान पर दूसरा चतुर्मास अथवा मास-कल्प मुनि को नहीं करना चाहिए, क्योंकि सूत्र के उत्सर्ग और अपवाद रूप अर्थ की जिस प्रकार से आज्ञा हो, उसी प्रकार से सूत्रोक्त मार्ग पर मुनि.को चलना चाहिए। - टीका-जिस साधु ने जिस स्थान पर चर्तुमास वा मास कल्प किया हो, फिर उसी साधु को उसी स्थान पर दूसरा चतुर्मास वा मास कल्प कदापि नहीं करना चाहिए अर्थात् दो अथवा तीन चतुर्मासादि अन्यत्र करके, फिर उसी स्थान पर चतुर्मासादि करना उचित है। अतएव जिस प्रकार सूत्रार्थ की आज्ञा हो उसी प्रकार साधु को करना चाहिए; क्योंकि सूत्रोक्त मार्ग से चलता हुआ साधु आज्ञा का आराधक होता है। अतः जो मुनि सूत्र के भावों को सम्यक् प्रकार से विचार करके तदनुसार चलते हैं, वे तो अपने कार्य की सिद्धि कर लेते हैं. किन्त जो मनि इसके विपरीत चलते हैं, वे कार्य सिद्धि की अपेक्षा उल्टी अपनी सत्ता भी नष्ट कर देते हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार आत्म विचारणा के विषय में कहते हैं:जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपेहए अप्पगमप्पएणं। किं मे कडं किंच मे किच्चसेसं, किं सक्कणिजं न समायरामि॥१२॥ 472 ] दशवैकालिकसूत्रम् [द्वितीया चूलिका

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