________________ के संसर्ग को वज्जयंति-वर्जते हैं णं-यह शब्द वाक्यालङ्कार अर्थ में है। मूलार्थ-यह अब्रह्मचर्य सब अधर्मों का मूल है और महान् से महान् दोषों का समूह-रूप है। इसीलिए निर्ग्रन्थ साधु इस मैथुन के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं। ___टीका-संसार में जितने भी अधर्म हैं, उन सभी का बीज भूत और जितने भी त्याज्य (न करने योग्य) दोषों के कार्य हैं उन सभी का कराने वाला यह दोषों का समूह रुप अब्रह्मचर्य है। क्योंकि, संसार में चौर्य आदि कुकृत्य प्रायः इसी के वशीभूत होकर किए जाते हैं और इसी के कारण से लोक परलोक में नाना प्रकार के घोर से घोर कष्ट भोगे जाते हैं। सूत्रकार ने साधुओं को इसी लिए इस अब्रह्मचर्य से सर्वथा अलग रहने का समुज्वल उपदेश दिया है। केवल उपेदश ही नहीं, 'मेहुण संसग्गं' पद देकर यह भी स्पष्टतः सूचित कर दिया है कि, अब्रह्मचर्य से बचने के लिए एकान्त स्थान में स्त्रियों से वार्तालाप आदि का संसर्ग भी नहीं करना चाहिए। एकान्त स्थान बहत बरा होता है. वहाँ एक स्त्रियों का संसर्ग ही त्याज्य नहीं है, बल्कि जिनजिन कारणों से कामोद्दीपन होता है वे सभी कारण त्याज्य हैं। उपर्युक्त विवेचन का संक्षिप्त शब्दों में सार यह है कि, जो आत्माएँ मोक्ष मन्दिर में जाने की इच्छुक हैं, उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन पूर्ण रूप से करना चाहिए। ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्म-पदवी मिल सकती है। बिना ब्रह्मचर्य के ब्रह्म-पद . की आशा करना, आशा नहीं; प्रत्युत उन्मत्तता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, पंचम स्थान के विषय में कहते हैं:बिडमुब्भेइमं लोणं, तिल्लं सप्पिं च फाणिअं। न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया // 18 // बिडमुद्भेद्यं लवणं, तैलं सर्पिश्च फाणितम्। न ते संनिधिमिच्छन्ति, ज्ञातपुत्रवचोरताः // 18 // पदार्थान्वयः- जो नायपुत्तवओरया-भगवान् ज्ञातपुत्र के प्रवचनों में रत रहने वाले साधु हैं ते-वे बिडं-बिड़-लवण तथा उब्भेइम-सामुद्रिक लोणं-लवणं तथा तिल्लं-तैल च-तथा सप्पिं-घृत तथा फाणिअं-द्रवीभूत-गुड़ आदि पदार्थ(राब) संनिहिं-रात्रि में बासी रखना न इच्छंतिनहीं चाहते। मूलार्थ-जो महामुनि, ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के प्रवचनों पर पूर्ण आसक्ति रखने वाले हैं; वे बिड़-लवण, सामुद्रिक-लवण, तैल,घृत तथा द्रवीभूत-गुड आदि पदार्थों को रात्रि में रखने की कभी इच्छा नहीं करते / टीका-इस गाथा में पंचम-स्थान के विषय में कहा गया है कि, जो साधु श्री भगवान् महावीर स्वामी के प्रवचनों पर अनुरक्त है; अर्थात्-उनकी आज्ञा अनुसार क्रिया-काण्ड करने वाले हैं, वे बिड़-लवण जो लवण गोमूत्र आदि से पकाया जाता है अथवा सामुद्रिक लवण जो समुद्र के खारे जल से बनाया जाता है तथा तैल, घृत, द्रवीभूत गुड़ (राब) इत्यादि पदार्थ रात्रि में बासी नहीं रखते। कारण कि, इनका संचय करने से गृहीत नियमों में बाधा उत्पन्न होने की 228] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्