________________ जलकाय के समारम्भ का यावजीवन के लिए परित्याग कर देना चाहिए। टीका-जब जलकाय की हिंसा से नाना प्रकार के जीवों की हिंसा होती है तो फिर क्या करना चाहिए ? इस शङ्का के उत्तर में सूत्रकार कहते हैं कि, इस प्रकार जो दुर्गति के बढ़ाने वाले दोष हैं अर्थात् जिन से दुर्गतियों की उपलब्धि होती है, उनको सम्यक्तया जान कर अप्काय के आरम्भ को सर्वथा छोड़ देना चाहिए। यह बात निश्चित है कि, हिंसा के उत्पन्न हुए दुःख हिंसा से कभी शान्त नहीं हो सकते। वे तो एक अहिंसा द्वारा ही शान्त किए जा सकते हैं। दयालु-पुरुष को अहिंसा भगवती की शुद्ध-मन से उपासना करनी चाहिए और अपने अभीष्ट की सिद्धि करनी चाहिए। उत्थानिका- अब आचार्य, 'नवम-स्थान अग्निकाय की यत्ना के विषय में कहते अतएव हैं: जायतेअंन इच्छंति, पावगं जलइत्तए। तिक्खमनपरं सत्थं, सव्वओ वि दुरासयं॥३३॥ .. जाततेजसं क्षेच्छन्ति, पापकं ज्वाल यितुम्। तीक्ष्णमन्यतरं शस्त्रं, सर्वतोऽपि दुराश्रयम्॥३३॥ पदार्थान्वयः- जो पावगं-पाप रूप है तिक्खं-तीक्ष्ण है अन्नपरंसत्थं-सब ओर से धार वाले शस्त्र के समान है सव्वओवि-सभी स्थलों में दुरासयं-अत्यंत कष्ट से भी असहनीय है, ऐसी जायतेअं-अग्नि को जलइत्तए-प्रज्वलित करने की साधु न इच्छंति-मन से भी इच्छा न करे। मूलार्थ-दयालु-मुनि पापरूप, अतीव तीक्ष्ण, सब ओर से धार वाले शस्त्र के समान एवं सर्व प्रकार से दुराश्रय अग्नि के जलाने की कदापि इच्छा नहीं करते। टीका-इस सूत्र में नवम स्थान के विषय में यह प्रतिपादित किया गया है कि, जो भवितात्मा अनगार हैं, वे पापक, 'सर्व प्रकार के शस्त्रों से तीक्ष्ण एवं सभी स्थानों में असहनीय' जो अग्नि है उसके जलाने की कदापि इच्छा नहीं करते हैं। क्योंकि, अग्नि का जलाना मानों सब प्राणियों का संहार करना है। अग्नि के सर्व-संहारी-उदर में पड़ने के बाद किसी की भी कुशलता नहीं रहती है। सूत्र में जो अग्नि को पापक' कहा गया है, उसका यह कारण है कि, 'पाप एव पापकस्तं प्रभूतसत्वापकारत्वेनाशुभमित्यर्थः।' अर्थात् यह अग्नि प्रभूत-सत्त्वों की अपकार करने वाली है, इसलिए इसे 'पापक' कहा है। सूत्र में अग्नि के लिए दूसरा शब्द 'अन्नपरं सत्थं' दिया है जिसका भाव यह है कि, संसार में जितने भी शस्त्र हैं, वे सभी प्रायः एक-धारा रूप हैं; किन्तु केवल एक यह अग्नि रूप शस्त्र ही सर्व धारा रूप, सभी ओर से जीवों का संहार करने वाली है। सूत्र में आए हुए 'नेच्छन्ति' क्रिया पद का यह अर्थ समझना चाहिए कि, जब साधु मन से भी अग्नि के समारम्भ की इच्छा नहीं करते तो फिर वाणी और शरीर से कैसे कर सकते हैं? उत्थानिका- अब आचार्य, फिर इसी विषय में कहते हैं:पाईणं पड़िणं वावि, उड्ढे अणुदिसामवि। अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओ वि अ॥३४॥ 240] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्