________________ पदार्थान्वयः- जे-जो भिक्खू-साधु अलोल-लोलुपता रहित है रसेसु-रसों में नं गिज्झे-गृद्ध नहीं है उंछं-अज्ञात कुलों में आहारार्थ चरे-जाता है जीविअं-संयम रहित जीवन को नाभिकंखी-नहीं चाहता है ट्ठिअप्पा-ज्ञानादि के विषय में अपनी आत्मा को स्थित रखता है अणिहे-छल से रहित है तथा जो इड्-िलब्धि प्रमुख ऋद्धि को च-और सक्कारण-सत्कार को चऔर पूअणं-पूजा को चए-छोड़ता है स-वही भिक्खू-सच्चा भिक्षु होता है। मूलार्थ-जो मुनि लोभ-लालच नहीं करता है, रसों में मूच्छित नहीं होता है,१ . अज्ञात कुलों में से लाया हुआ भिक्षान्न भोगता है, असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता है, ऋद्धि सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा भी नहीं चाहता है तथा जो स्थिर स्वभावी और निश्छल होता है, वही कर्म समूह को नष्ट करता है और वही भिक्षु कहलाने के योग्य है। टीका- सच्चा भिक्षु-पद वही प्राप्त कर सकता है, जो लोलुपता से रहित होता है अर्थात् अप्राप्त भोग वस्तु की इच्छा नहीं करता है तथा जो मधुर लवणादि रस वाले पदार्थों के मिलने पर उनमें गृद्ध (लोलुप) नहीं होता है रुखा सूखा जैसा मिल जाता है उसी में सन्तोष करता है तथा जो अज्ञात अर्थात्- अपरिचित गृहों से भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी उदर पर्ति योग्य भिक्षा लाता है तथा जो असंयत जीवन की भूल कर भी इच्छा नहीं करता है अर्थात् जो मरण संकट के आने पर भी व्रत-भग्न करके जीवन रखने की मन में भावना तक नहीं लाता तथा जो आमर्षोंषधि आदि ऋद्धि की, वस्त्रादि द्वारा सत्कार की एवं स्तवनादि द्वारा पूजा की इच्छा का भी परित्यागी है अर्थात्- जो उक्त कार्यों की प्राप्ति के लिए कभी प्रयत्नशील नहीं होता तथा जो अपनी आत्मा को छल कपट के जाल में नहीं फँसाता, प्रत्युत ज्ञानादि समाधियों के विषय में ही संलग्न रहता है। यह उपर्युक्त विवेचन भाव-भिक्षु को लेकर किया है, द्रव्य भिक्षु को लेकर नहीं। भाव के साथ ही द्रव्य की शोभा होती है, बिना भावों के केवल द्रव्य तो पोली मुट्ठी के समान बिल्कुल निःसार है। अंतः केवल द्रव्य की पूजा करने वालों को भाव की तरफ लक्ष्य देना चाहिए। सच्चा भिक्षुत्व भाव में ही है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, साधु को अहंमन्य न बनने का उपदेश देते हैं:न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं चं कुप्पिज न तं वइज्जा। जाणिअ पत्तेअं पुनपावं, __ अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू॥१८॥ न परं वदेत् अयं कुशीलः, येन च कुप्येत् न तद् वदेत्। 1. पूर्व सूत्र में उपधि को लेकर कथन किया गया था और इस सूत्र में आहार को लेकर कथन किया गया है, अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 436