Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 523
________________ पदार्थान्वयः-बुद्धिमं-बुद्धिमान् नरो-मनुष्य इच्चेव-इस प्रकार संपस्सिअ-विचार : करके विविहं-नाना विध आयं-ज्ञानादि के लाभ के उवायं-विनयादि उपायों को विआणिआजान कर काएण-काय से वाया-वचन से अदु-अथवा माणसेणं-मन से तिगुत्तिगुत्तो-त्रिगुप्ति से गुप्त होता हुआ जिणवयणं-जिन वचनों का अहिट्ठिजाति-आश्रय करे अर्थात् जिन वचनानुकूल क्रिया करके स्वकार्य की सिद्धि करे।त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-बुद्धिमान् पुरुष को पूर्वोक्त रीत्या विचार करके, ज्ञानादि लाभ के उपायों को जानना चाहिए एवं मन, वचन और काय के योग से त्रिगुप्ति गुप्त होकर, जिन वचनों का यथावत् पालन करना चाहिए। यही रीति कार्य सिद्ध करने की है। टीका-इस सूत्र में चूलिका का उपसंहार किया गया है। बुद्धिमान् पुरुष को योग्य है कि जो विषय इस अध्ययन में वर्णन किया गया है, उसको अच्छी प्रकार विचार कर तथा ज्ञानादि की प्राप्ति के विनयादि उपायों को जान कर, तीनों गुप्तियों को धारण करके जिन वचनों के विषय में दृढ़ता रक्खे अर्थात् अरिहंतों के उपदेश द्वारा आत्म कल्याण करे। इसका अन्तिम फल निर्वाण प्राप्ति है। सूत्र में जो 'इत्येवं' शब्द दिया है, उसका यह भाव है-प्रथम सूत्र में जो अष्टादश स्थान बतलाए हैं, उनसे लेकर सम्पूर्ण अध्ययन का सम्यग् विचारों से विचार करना चाहिए, क्योंकि अच्छी प्रकार विचारी हुई यह अष्टादश स्थान प्रतिपादिका चूलिका, संयम से विचलित होते हुए जीवों को पुनः संयम में स्थिरीभूत करने वाली है। प्रथमा चूलिका समाप्त। 462 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका

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