Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 526
________________ - अनुस्त्रोतः सुखो लोकः, प्रतिस्त्रोत आश्रवः सुविहितानाम्। अनुस्रोतः संसारः, प्रतिस्त्रोतस्तस्योत्तारः // 3 // पदार्थान्वयः- संसारो-संसार अणुसोअ-अनुस्रोत है; और तस्स-उससे उत्तारोपार होना पडिसोओ-प्रतिस्रोत है। अतः सुविहिआणं-साधु पुरुषों का आसवो-इन्द्रियजयरूप व्यापार तथा आसमो-दीक्षा रूप आश्रम पडिसोओ-प्रतिस्रोत है, अतः इसमें संसारी जीवों का जाना कठिन है; क्योंकि लोओ-संसारी जीव तो अणुसोअसुहो-अनुस्रोत में ही सुख मानते हैं। - मूलार्थ-यह संसार अनुस्रोत के समान है और सुविहित साधुओं का दीक्षारूप आश्रम प्रतिस्रोत के समान है। क्योंकि इसीसे संसार-समुद्र पार किया जाता है। अतः संसारी जीवों को प्रतिस्त्रोत का मार्ग कठिन प्रतीत होता है, वे तो अनुस्रोत में ही सुख मानते हैं। टीका-इस गाथा में पूर्व विषय को स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। यथा- जिस प्रकार काष्ठ नदी के अनुस्रोत में तो सुखपूर्वक चला जाता है; किन्तु प्रतिस्रोत में कठिनता से जाता है, उसी प्रकार संसारी जीव भी स्वभावतः अनुस्रोत रूप विषय भोगों की ओर ही प्रवृत्त होते हैं; किन्तु प्रतिस्रोत के समान साधुओं का दीक्षारूप जो आश्रम है, उसमें प्रत्येक जीव . सुखपूर्वक गमन नहीं कर सकते। वीर से वीर कहलाने वाले मनुष्य भी संयम के प्रति अपनी असमर्थता ही प्रकट करते हैं। अनुस्रोत से संसार और प्रतिस्रोत से संयम के कहने का यह भाव है कि यदि शब्दादि विषय भोगों में ही लगे रहोगे, तो संसार-सागर में डूबोगे। यदि इसके विपरीत विषय भोगों का परित्याग कर संयम धारण करोगे तो निर्वाण पद प्राप्त करोगे। सूत्र में 'आसवो'-और-'आसमो' यह दोनों शब्द मिलते हैं। दोनों का संस्कृत रूप क्रमशः 'आश्रवः' और-'आश्रम' होता है। भावार्थ दोनों का एक-सा ही है। . उत्थानिका- अब नियमों के यथा समय पालन का उपदेश देते हैं:तम्हा आयारपरक्कमेणं, संवरसमाहिबहुलेणं / चरिआ गुणा अनियमा अ, हुंति साहूण दट्ठव्वा॥४॥ तस्मादाचारपराक्रमेण , संवरसमाधिबहुलेन / चर्या गुणाश्च नियमाश्च, भवन्ति साधूनां द्रष्टव्याः॥४॥ ... पदार्थान्वयः- तम्हा-इसलिए आयारपरक्कमेणं-आचारपालन में पराक्रमी होने से संवरसमाहिबहुलेणं-संवर समाधि में बहुलता युक्त होने से साहूण-साधुओं को चरिआ-अपनी चर्या गुणा-मूलगुण वा उत्तर गुण अ-तथा नियमा-पिंडविशुद्धि आदि नियम, जिस समय जो आचरण करने योग्य हों, उसी समय वही दट्ठव्वा-आसेवन करने योग्य हुँति-होते हैं। मूलार्थ-अतएव जो मुनि आचार क्रिया में पराक्रमी हैं एवं संवर समाधि की द्वितीया चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [465

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