Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 514
________________ हुआ घोर दुःख भोगता है, कारण कि इष्ट संयोग के न मिलने से उसे विषय भोगों में विघ्न पड़ता है, जिससे उसकी आत्मा महादुःख पाती है। इसी वास्ते सूत्र में लिखा है कि 'कुतप्तिभिः'कुत्सित-चिन्ताभिरात्मनः संतापकारिणीभिर्विहन्यते। सूत्रकार ने जो बंधनबद्ध हाथी का दृष्टान्त दिया है, उसका भाव यह है कि हाथी को पकड़ने वाले लोग वन में एक बड़ा-सा गढ्ढा खोदते हैं। फिर उस गढ्ढे को पतली-पतली लकड़ियों से ढक कर उस पर कागज की हथिनी बना खड़ी कर देते हैं / वन का स्वच्छंद हाथी उसे असली हथिनी समझ कर ज्यों ही उस पर आता है, त्यों ही गड्ढे में गिर पड़ता है और पकड़ लिया जाता है। पुनः लोहमयी शृङ्खलाओं से बंधा हुआ वह हाथी घोर यातनाओं को भोगता है। इसी प्रकार साधु भी विषय भोगों के झूठे लालच में फँसकर . घोर दुःख उठाता है। उत्थानिका- अब पंकमग्न हस्ती की उपमा देते हैं:पुत्तदारपरीकिन्नो * , मोहसंताणसंतओ / पंकोसन्नो जहा नागो, स पच्छा परितप्पड़॥८॥ पुत्रदारपरिकीर्णः , मोहसंतानसंततः / पंकावसन्नो यथा नागः, सः पश्चात् परितप्यते॥८॥ पदार्थान्वयः-पुत्तदारपरीकिन्नो-पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ मोहसंताण-संतओदर्शन मोहनीय आदि कर्मों से संतप्त हुआ स-वह साधु जहा-जैसे पकोसन्नो-कीचड़ में फंसा हुआ नागो-हाथी पश्चात्ताप करता है, वैसे ही वह पच्छा-पीछे से परितप्पइ-परितप्त होता है। मूलार्थ-पुत्र और स्त्री जनों से घिरा हुआ एवं मोहप्रवाह से संतप्त हुआ, वह संयम भ्रष्ट साधु; कदम-मग्न हाथी के समान अतीव पश्चात्ताप करता है। ... टीका-जब साधु संयम छोड़ देता है, तब पुत्र और स्त्री आदि से संकीर्ण हो जाता है तथा दर्शन मोहनीय आदि कर्मों से संतप्त हो जाता है। उस समय वह जिस प्रकार हाथी दलदल में फँसा हुआ दुःख पाता है, तद्वत् कुटुंब के मोह जाल में फँसा हुआ दुःख पाता है। कारण कि.वह सोचता है- हाय ! मैंने यह अनर्थकारी काम क्यों किया। यदि मैं संयम क्रियाओं में दृढ़ रहता तो मेरी आज इस प्रकार की दुर्गति क्यों होती। संयम छोड़ कर मैंने क्या लाभ उठाया है। सूत्रकर्ता ने जो हस्ति का हेतु दिया है, उसका यह भाव है कि जिस भाँति हाथी के लिए . कर्दम बन्धन है, ठीक इसी भाँति साधु के लिए संसार में विषय विकार रूपी कर्दम बन्धन है। उत्थानिका- अब फिर दूसरे प्रकार से पश्चात्ताप के विषय में कहते हैं:अज आहंगणी हुंतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ। जइऽहं रमंतो परिआए, सामण्णे जिणदेसिए॥९॥ अद्य तावदहं गणी भवेयम्, भावितात्मा बहुश्रुतः। यद्यहं रमेय पर्याये, श्रामण्ये जिनदेशिते॥९॥ प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [453

Loading...

Page Navigation
1 ... 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560