Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 510
________________ ' पदार्थान्वयः- जया-जब अणज्जो-अनार्थ साधु भोगकारणा-भोगों के कारण से धम्मं-चारित्र धर्म को चयई-छोड़ता है, तब से-वह बालो-अज्ञानी साधु तत्थ-उन काम भोगों में .मुच्छिए-मूछित हुआ आयई-भविष्यत् काल को नावबुज्झइ-सम्यक्तया नहीं जानता। मूलार्थ-कामभोगों के कारण से जब अनार्य बुद्धि वाला साधु, चारित्र धर्म को छोड़ता है। तब वह अज्ञानी साधु , उन काम भोगों में मूर्च्छित हुआ आगामी काल को ध्यान में नहीं रखता है। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जब साधु संयम को छोड़ता है, तब वह आगामी काल के ज्ञान को भूल जाता है, क्योंकि जब साधु के भाव संयम छोडने के हो जाते हैं. तब उसकी आत्मा अनार्यों के (म्लेच्छों के) समान दष्ट क्रियाएँ करने लग गृहस्थावास में पुनः आता है और वह अज्ञानी साधु उन शब्दादि विषयों में अतीव मूर्च्छित होता हुआ आगामी काल में होने वाले सुख-दुःख सभी को भूल जाता है। कारण कि वर्तमान काल के क्षणस्थायी सुखों में निमग्न हो जाने पर भविष्यत् काल का परिबोध नहीं रहता। वर्तमान काल की मोहमयी अवस्था में पड़कर भविष्यत् की अवस्था को विस्मृत कर देना कहाँ की बुद्धिमत्ता है, भविष्य में होने वाले कर्त्तव्य के कटु परिणामों को जानने वाला ही सच्चा बुद्धिमान् है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार पदभ्रष्ट इन्द्र की उपमा से संयम त्याग का निषेध करते हैं: जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं। सब्बधम्मपरिब्भट्ठो , स पच्छा परितप्पइ॥२॥ यदाऽवधावितो भवति, इन्द्रो वा पतति क्षमाम्। सर्वधर्मपरिभ्रष्टः , सः पश्चात् परितप्यते॥२॥ पदार्थान्वयः- छमं-पृथ्वी पर पडिओ-पतित हुए इंदो वा-इन्द्र के समान जया-जब कोई साधु ओहाविओ-चारित्र धर्म से भ्रष्ट होइ-हो जाता है, तब से-वह सब्बधम्मपरिब्भट्ठोसब धर्मों से सभी प्रकार से भ्रष्ट होता हुआ पच्छा-पीछे से पस्तिष्पा-अनुताप करता है कि मैंने यह कैसा अकार्य किया है। मूलार्थ-जिस प्रकार स्वर्गलोक सेच्युत होकर पृथ्वी तल पर आता हुआ इन्द्र पश्चाताप करता है। इसी प्रकार जो चारित्र धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, वह भी सभी कर्मों से परिभ्रष्ट होता हुआ अतीव पश्चाताप करता है। ___टीका-इस गाथा में उपमा अलंकार द्वारा क्षय संयम त्याग का फल बतलाया गया है। जैसे कि जब देवाधिपति इन्द्र, पुण्य क्षय होने पर स्वर्ग लोक से च्युत होकर मनुष्य लोक में आता है; तब वह बहुत अधिक शोक (पश्चात्ताप) करता है। उस समय उसका हृदय भावी संकट की व्यथा से चूर्ण-चूर्ण हो जाता है। वह रोता-पीटता है-हाय! मेरा यह अतुलित वैभव नष्ट हो रहा है, मैं अब आगे कष्ट भोगूंगा। ठीक इसी प्रकार जब साधु भी अपने क्षमा, शील, प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [449

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