Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 468
________________ पदार्थान्वयः-जिणमयनिउणे-जिन धर्म तत्त्वों का ज्ञाता अभिगमकुसले-अतिथि साधुओं का सुचतुर सेवक मुणी-साधु गुरुं-गुरु की इह-इस लोक में सययं-निरन्तर पडिअरिअसेवा करके पुरेकडं-पूर्वकृत रयमलं-कर्मरज को धुणिअ-क्षय करके भासुरां-दिव्य धाम-ज्ञानज्योतिः स्वरूप अउलं-सर्वोत्कृष्ट गइं-सिद्ध गति को वइ-प्राप्त करता है। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-जैनागम के तत्त्वों को पूर्ण रूप से जानने वाला एवं अतिथि साधुओं की दत्तचित्त से सेवा (भक्ति) करने वाला सच्चा साधु; इस संसार में अव्याहत रूप से गुरुश्री की सेवा कर के पूर्वकृत कर्मों को तो क्षय कर देता है और ज्ञान-तेजोमयी अनुपम सिद्धगति को (भी) प्राप्त कर लेता है। टीका-इस काव्य में तृतीय उद्देश का उपसंहार किया गया है। यथा-जो साधु , जैन धर्म के आगमतत्त्वों का पूर्ण मर्मज्ञ होता है तथा अपने पास में आने वाले अतिथि साधुओं की सश्रद्धा यथोचित सेवा भक्ति करता है; वह संसार में अवतार लेने का वस्तुत:लाभ उठा लेता है और भक्तिपूर्वक गुरुश्री की सेवा करके अनादिकालीन कर्म शत्रुओं को समूल नष्ट कर देता है। अतः जब आत्मा कलुषित कर्ममल से मुक्त होकर सर्वथा शुद्ध बन गई तो फिर संसार में कैसा रहना। फिर तो आत्मा , ज्ञान रूप विलक्षण तेज से परम भास्वर एवं सर्वोत्कृष्ट सिद्धि स्थान में जा विराजती है। यदि कुछ कर्म अवशिष्ट रह जाते हैं तो देवगति में जन्म होता है और फिर वहाँ से मनुष्य योनि में जन्म लेकर, जप-तप करके,मोक्ष पाता है। इस उद्देश में गुरु-भक्ति का विशद रूप से स्पष्टीकरण किया गया है और बतलाया गया है कि आत्मा गुरु-भक्ति द्वारा ही निर्वाण पद प्राप्त कर सकती है, लोक-परलोक दोनों लोकों को सुधारने वाली संसार में एक गुरु-भक्ति ही है। प्रस्तुत गाथा में जिणमयनिउणे' पद विशेष ध्यान देने योग्य है। जैनधर्म पहले निर्ग्रन्थ धर्म कहलाता था. जैनधर्म नहीं। प्राचीन आगमों में तथा तत्कालीन बद्ध साहित्य में प्रायः सर्वत्र जैनों के लिए निर्ग्रन्थ शब्द का ही प्रयोग किया गया है। परन्तु भगवान् महावीर स्वामी से चोथी पीढ़ी पर होने वाले श्री शय्यंभव जी 'जिन मत' शब्द का प्रयोग करते हैं, इससे मालूम होता है कि आपके समय में जिन मत शब्द रूढ़ हो गया होगा। बाद में देवता 2 / 4 / 206 शाकटायन सूत्र के द्वारा 'जिनो देवताऽस्येति' व्युत्पत्ति से जैन शब्द प्रचार में आया। .....'श्री सुधर्माजी जम्बूजी से कहते हैं कि हे वत्स ! मैंने जैसा अर्थ इस नवमाध्ययनान्तरवर्ती तृतीय उद्देश का सुना था, वैसा ही तुझे बतलाया है।' नवमाध्ययन तृतीयोद्देश समाप्त। नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [407

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