Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 489
________________ पर इधर-उधर घूम-फिर कर अपनी प्रकृति के योग्य भोजन से पेट भर लेता है, किन्तु भविष्य के लिए कुछ संग्रह करके नहीं रखता, ठीक इसी प्रकार साधु भी जो कुछ अपने योग्य मिलता है उससे क्षुधा निवृत्ति कर लेता और कभी किसी भोज्य पदार्थ का संग्रह करके नहीं रखता है। आत्मदर्शी बनने के लिए ममता का त्याग करना आवश्यक है। . उत्थानिका- अब सूत्रकार समानधर्मी साधुओं को भोजानार्थ निमंत्रित करने का सदुपदेश देते हैं:तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लभित्ता। छंदिअ साहम्मियाण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू॥९॥ तथैव अशनं पानकं वा, विविधं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा। छन्दित्वा समानधार्मिकान् भुंक्ते, भुक्त्वा च स्वाध्यायरतः यः सः भिक्षुः॥९॥ पदार्थान्वयः-तहेव-उसी प्रकार जे-जो असणं-अन्न पाणगं-पानी वा-और विविहंनाना प्रकार के खाइम-खाद्य और साइम-स्वाद्य पदार्थ को लभित्ता-प्राप्त कर साहम्मियाणस्वधर्मी साधुओं को छंदित्ता-निमंत्रित करके ही भुंजे-खाता है तथा भुच्चा-खाकर सज्झायरएस्वाध्याय तप में रत हो जाता है स-वही भिक्खू-भिक्षु होता है। मूलार्थ-जो अशनादि चतुर्विध आहार के मिलने पर, अपने समान-धर्मी साधुओं को भोजनार्थ निमंत्रित करके ही आहार करता है और आहार करके श्रेष्ठ स्वाध्याय कार्य में संलग्न हो जाता है, वही सच्चा साधु होता है। टीका-इस काव्य में वात्सल्य भाव का दिग्दर्शन कराया गया है। यथा- गृहस्थों के घरों से अन्न-पानी आदि चतुर्विध आहार के प्राप्त होने पर, अपने समान धर्म पालन करने वाले साथी साधुओं को भोजन का निमंत्रण देकर ही साधु को स्वयं भोजन करना चाहिए तथा भोजन करके शीघ्र ही सर्वश्रेष्ठ स्वाध्याय कार्य में लग जाना चाहिए। क्योंकि सच्चे भिक्षु का यही मार्ग है। उपर्यक्त नियम से वात्सल्य भाव और स्वा प्रकाश पड़ता है। देखिए सूत्रकार ने कितना ऊँचा आदर्श रक्खा है। अकेले खाने को कितना' निषिद्ध कथन किया है और भोजन के पश्चात् प्रमाद के वश होकर सो जाने का एवं इधरउधर की निन्दा-विकथा करने का कितना मार्मिक खण्डन किया है ? - दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [428

Loading...

Page Navigation
1 ... 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560