________________ टीका- यदि कभी साधु, किसी कार्य-वश खेतों की ओर जाए, तो वहाँ खेतों में धान्यों को देख कर इस प्रकार न कहे कि, ये धान्य सब प्रकार से परिपक्व हैं, इनकी अभी तक छवि नीली है, ये धान्य अब कटने योग्य हो गए हैं, ये फल अब भून कर खाने चाहिए तथा इस वनस्पति का फल अग्नि में अर्द्ध पक्व कर खाया जाए तो बहुत स्वादिष्ट प्रतीत होगा और चनों की होले कैसी अच्छी स्वाद लगती हैं इत्यादि। इस गाथा में जो 'ओषधी' शब्द आया है, उससे गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि धान्यों का ग्रहण है। क्योंकि औषधी उसे ही कहते हैं जिसके कट जाने पर फिर खेत में उसकी कोई जड़ न रहे। संक्षिप्त शब्दों में यों कहिए कि, जो वनस्पति फसल पर्यन्त (फल पकने तक ही) रहती है, पश्चात् काट दी जाती है. उसे औषधी कहते हैं। सूत्र में आए हुए 'पिहुखज्जत्ति' का अर्थ है 'पृथुक भक्ष्या'। इसका मातृ-भाषा हिन्दी में आशय होता है अग्नि में सेक कर अर्द्ध पक्व शाली आदि। देखिए हारिभद्री टीका-'पृथुका अर्द्ध पक्व शाल्यादिषु क्रियन्ते।' उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'यदि ऐसा कथन अनुचित है, तो फिर कैसा कथन करना चाहिए ?' इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं :-. रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसढा वि अ। गब्भिआओ पसूआओ, संसाराओ त्ति आलवे॥३५॥ रूढाः बहुसम्भूताः, स्थिरा उत्सृता अपि च। गर्भिताः प्रसूताः, संसारा इति आलपेत्॥३५॥ पदार्थान्वयः- ये ओषधियाँ रूढा- उत्पन्न हो गई हैं बहुसम्भूआ-प्रायः निष्पन्न हो गई हैं थिरा-स्थिरी भूत हो गई हैं विअ-तथैव प्रोसढा-उपघात से निकल गई हैं गम्भिआप्रो-गर्भ से निकली हुई नहीं हैं पसूआओ-गर्भ से बाहर निकल आई हैं तथा संसाराओ-परिपक्व बीजवाली हो गई हैं त्ति-इस प्रकार आलवे-बोले। . . मूलार्थ- यदि कभी पूर्वोक्त गोधूम आदि धान्यों के विषय में बोलना हो, तो इस प्रकार बोलना चाहिए कि, ये धान्य अंकुर रूप में रूढ हो गए हैं, अधिकांश में निष्पन्न हो गए हैं, स्थिर हो गए हैं, फल-फूल कर बड़े हो गए हैं, उपघात से निकल गए हैं, अभी सिट्टे (बालियाँ) नहीं निकले हैं, प्रायः सिट्टे (बालियाँ) निकल आए हैं एवं सिट्टों (बालियों) में बीज भी पड़ गए हैं। टीका- यदि किसी कारण से बोलना ही पड़े तो निम्न प्रकार से निरवद्य वचन बोलना चाहिए। जैसे कि, इस धान्य का अंकुर भूमि से बाहर निकल आया है, ये धान्य प्रायः निष्पन्न हो गए हैं, अब ये धान्य बाहर के ऋतु सम्बन्धी शीत आदि उपद्रवों से बच गए हैं अर्थात् उपघातों की सीमा से निर्विघ्नता पूर्वक पार हो गए हैं, इस धान्य का सिट्टा (सिरा) अभी तक बाहर नहीं निकला है, इस धान्य का सिट्टा गर्भ से बाहर निकल आया है तथा इसमें तन्दुलादि सार पदार्थ अर्थात् बीज पड़ गए हैं। तात्पर्य यह है कि, जिस समय जिस प्रकार की अवस्था धान्यों की हो, उस समय उसी प्रकार की अवस्था से साधु को बोलना चाहिए, किन्तु सावध भाषा कदापि नहीं बोलनी चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, जीमनवार आदि विषयों की भाषा शुद्धि का वर्णन करते हुए प्रथम निषेधात्मक कथन करते हैं :सप्तमाध्ययनम् हिन्दीभाषाटीकासहितम् [289