________________ पालन रूप वृत्ति लञ्जासमा-संयम के समान है वह एगभत्तं च भोयणं-एक वक्त भोजन है अर्थात्-दिन में एक बार आहार करता है। मूलार्थ-आश्चर्य है कि, संपूर्ण तत्त्वों को जानने वाले तीर्थंकर-देवों ने साधुओं के लिए नित्य ही तप कर्म का प्रतिपादन किया है, क्योंकि जो संयम के समान देह पालन रूप वृत्ति है, उस में केवल एक बार ही भोजन करना है। टीका-संपूर्ण तत्त्वों के स्वरूप को जानने वाले जो तीर्थंकर देव हैं, उन्होंने मोक्षगामी साधुओं को नित्य ही तप कर्म का (तपस्या करने का) सदुपदेश दिया है, जो दिन में एक बार भोजन करना है। कारण कि, एक बार भोजन करने से आयुष्प्राण की भली भाँति रक्षा भी की जा सकती है और देह तथा संयम की पालना भी हो जाती है। ऐसे एक बार भोजन करने वाले मुनि को शास्त्रकार ने नित्य-तपस्वी का पद प्रदान किया है और उस एकबार के भोजन को संयम के समान बतलाया है। इसके लिए सूत्र में जायलज्जासमा वित्ती' पद दिया है, जिसका भाव है कि (लज्जा) संयम (तेन) उस के (समा) समान (वर्तनं वृत्तिः) देह पालन रूप यह वृत्ति है। क्योंकि यह संयम से अविरोध रखने वाली है। सूत्र का यह निष्कर्ष निकला कि द्रव्य से एक बार भोजन करना चाहिए और भाव से कर्म बन्ध का अभाव करना चाहिए तथा किसीकिसी आचार्य का यह भी मत है कि, साधु को जो खाना हो वह दिन में ही खा ले, रात्रि में न खाए। क्योंकि यह प्रकरण रात्रिभोजन निषेध विषयक ही है,अतएव एक-भक्त शब्द से वे तद्दिवस (वह दिन) ही ग्रहण करते हैं। वास्तव में 'एक भक्त' एक बार के भोजन का ही नाम है और यह उत्सर्ग सूत्र है। अपवाद सूत्र की विधि से तो रोगी, बालक, वृद्ध तथा कतिपय कारणों के उपस्थित हो जाने पर एक बार से अधिक भी आहार कर सकते हैं। - उत्थानिका- अब आचार्य, 'रात्रि भोजन में प्राणातिपात का दोष होता है' इस विषय में कहते हैं: संति में सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा। जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे॥२४॥ ___संन्ति इमे सूक्ष्माःप्राणिनः, त्रसाः अथवा स्थावराः। .. यान् रात्रावपश्यन् , कथमेषणीयं चरेत्॥२४॥ . पदार्थान्वयः-मे-ये प्रत्यक्ष तसा-त्रस अदुव-और थावरा-स्थावर पाणा-प्राणी सुहुमा-बहुत सूक्ष्म हैं (दृष्टि गोचर नहीं होते) अतः साधु जाइं-जिन सूक्ष्म प्राणियों को राओ-रात्रि में अपासंतो-देख नहीं सकता है तो कह-किस प्रकार उनकी रक्षा करता हुआ एसणियं-ऐषणीय आहार को चरे-भोग सकेगा। मूलार्थ-येजो प्रत्यक्ष त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनमें बहुत से अतीव सूक्ष्म हैं, इतने सूक्ष्म हैं कि रात्रि में इन्हें देखने का विपुल प्रयत्न करने पर भी ये दृष्टिगोचर नहीं होते और जब साधु रात्रि में इन्हें देख ही नहीं सकता तो फिर किस प्रकार इन की रक्षा करता हुआ एषणीय-निर्दोष आहार को भोग सकेगा। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [233