Book Title: Chandraprabhacharitam
Author(s): Virnandi, Amrutlal Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 21
________________ चन्द्रप्रमचरितम् ४. अच्युतेन्द्र–घोर तपश्चरण करनेसे वह अच्युतेन्द्र हो जाता है। वहाँ वह बाईस सागरोपम आयुकी अन्तिम अवधि तक दिव्यसुखका अनुभव करता है। ५. राजा पद्मनाभ-आयु समाप्त होनेपर अच्युतेन्द्र अच्युत स्वर्गसे चयकर धातकीखण्डवर्ती मङ्गलावती देशके रत्नसंचयपुरमें राजा कनकप्रभ के यहां उनकी पट्टरानी सुवर्णमाला की कुक्षिसे पद्मनाभ नामक पुत्र होता है। किसी दिन एक बूढ़े बैलको दलदलमें धंसकर मरते देखकर कनकप्रभको वैराग्य हो जाता है। फलतः वह अपने पुत्र पद्मनाभको राज्य दे देता है और श्रीधर मुनिसे जिनदीक्षा लेकर दुर्धर तप करता है। पिताके विरहसे वह कुछ दिन दुःखी रहता है। फिर मन्त्रियों के प्रयत्नसे वह अपने राज्यका संचालन करने लगता है। कुछ काल बाद अपने पुत्रको युवराज बनाकर वह अपनी रानी सोमप्रभा के साथ आनन्दमय जीवन बिताने लगता है। किसी दिन मालीके द्वारा श्रीधर मुनिके पधारनेके शभ समाचार सुनकर पद्मनाभ उनके दर्शनोंके लिए मनोहर उद्यानमें जाता है। दर्शन करनेके पश्चात् वह उनके आगे अपनी तत्त्वजिज्ञासा प्रकट करता है। वे तत्त्वोपप्लव आदि दर्शनोंके मन्तव्योंकी विस्तृत मीमांसा करते हुए तत्त्वोंके स्वरूपका निरूपण करते हैं। उसे सुनकर पद्मनाभका संशय दूर हो जाता है। इसके पश्चात् पद्मनाभके पछनेपर वे उसके पिछले चार भवोंका विस्तृत वृत्तान्त सुनाते हैं। इस वृत्तान्तकी सत्यतापर कैसे विश्वास हो? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए मुनिराजने कहा-'राजन् ! आजसे दसवें दिन एक मदान्ध हाथी अपने झण्डसे बिछड़कर आपके नगरमें प्रवेश करेगा। उसे देखकर मेरे कथनपर विश्वास हो जायगा।' इसके उपरान्त मुनिराजसे व्रत ग्रहणकर वह अपनी राजधानीमें लौट आता है। ठीक दसवें दिन एक मदान्ध हाथी सहसा राजधानीमें घुसकर उपद्रव करने लगता है। पद्मनाभ उसे अपने वश में कर लेता है, और उसपर सवार होकर वनक्रीड़ाके लिए चल देता है। इसी निमित्तसे उस हाथीका 'वनकेलि' नाम पड़ जाता है । क्रीड़ाके पश्चात् पद्मनाभ उसे अपनी गजशालामें बंधवा देता है । राजा पृथिवीपाल इस हाथीको अपना बतलाकर वापिस करवाना चाहता है। पद्मनाभके इनकार करनेपर दोनोंमें युद्ध छिड़ जाता है। युद्ध में पृथिवीपाल मारा जाता है। इसके कटे सिरको देखकर पद्मनाभको वैराग्य हो जाता है, फलतः वह श्रीधर मुनिसे जिनदीक्षा लेकर सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों व तेरह प्रकारके चारित्रका परिपालन करता हआ घोर तप करता है। कुछ ही समयमें वह द्वादशाङ्ग श्रुतका ज्ञान प्राप्त करता है और सोलह कारण भावनाओंके प्रभावसे तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध कर लेता है। ६. वैजयन्तेश्वर-आयुके अन्तमें संन्यासपूर्वक भौतिक शरीरको छोड़कर पद्मनाभ वैजयन्त नामक अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र होते हैं, और तेतीससागरोपम आयुकी अन्तिम अवधि तक वहां वे दिव्यसुखका अनुभव करते हैं। ७. तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ-इनका जन्मस्थान पूर्वदेश की चन्द्रपुरी है । १. पुराणसा. ( ८२-३२ ) में कनकाभ नाम दिया है। २. पुराणसा० ( ८२-३२ ) के अनुसार रानीका नाम कनकमाला है। ३. इस घटनाको चर्चा उ० पु. और पुराणसा. दोनोंमें नहीं है। ४. उ० पु० ( ५४-१४१ ) में पद्मनाभकी अनेक रानियां होनेका संकेत है । ५. उ० पु. और पुराणसा० में हस घटनाका तथा इसके बाद होनेवाले युद्धका उल्लेख नहीं है । ६. वाराणसोसे आसामतकका पूर्वी भारत 'पूर्वदेश' के नामसे प्रख्यात रहा। उ० पु०, पुराणसा०, त्रिषष्टिशलाकापुरुष० और त्रिषष्टिस्मृति में इस देशका उल्लेख नहीं है । ७. त्रिषष्टिशलाकापुरुष० ( २९६,१३ ) में इस नगरीका नाम 'चन्द्रानना', उ० प्र० (५४,१६३ ) में 'चन्द्रपुर', पुराणसा०(८२,३९ ) में 'चन्द्रपुर', तिलोयपण्णत्ती ( ४.५३३ ) में 'चन्द्रपुर' और हरिवंश (६०,१८९ ) में 'चन्द्रपुरी' लिखा है । सम्प्रति इसका नाम 'चन्द्रवटी' 'चन्द्रौटी' या 'चंदरोटी' प्रसिद्ध है। यह वाराणसीसे १८ मील दूर गङ्गाके बायें तटपर है। यहाँ दि० व श्वे० सम्प्रदायके दो अलग-अलग जैनमन्दिर हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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