________________
यज्ञ, तीर्थ स्थान आदि का आध्यात्मिकीकरण
१६
अकलुषित एवं आत्मा का प्रशस्त लेश्या वाला धर्म मेरा जलाशय है। शांतितीर्थ कौन सा है ? और आप कहां नहा कर कर्मरज धोते हैं ?
ब्रह्मचर्य है शान्तितीर्थ, जहां नहाकर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूं। वर्तमान शैली
पाप कर्मों का नाश कैसे करें ? अधोगति से कैसे बचें ? अनिष्ट से कैसे बचें? विमल, विशुद्ध और पवित्र कैसे बनें ? ये प्रश्न आस्तिकता के सूचक प्रश्न रहे हैं। इन सभी प्रश्नों का जैन दृष्टि से समाधान दिया गया। हम किसी भी प्रश्न का खंडन न करें। खंडन करने से कोई प्रश्न उत्तरित नहीं होता। खंडन करना आज की शैली नहीं है। खंडन न करना महावीर की शैली रही है। इस संदर्भ में एक युग की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जैन परम्परा का मध्य युग-पंद्रह सौ वर्षों का समय जैन परम्परा के अनुकूल नहीं रहा। उसमें कुछ दूसरा प्रभाव आ गया। यदि जैन दार्शनिक महावीर के पदचिह्नों पर चलते तो जैन दार्शनिक ग्रंथों में दूसरे दर्शनों का खण्डन नहीं मिलता। जो दर्शन अनेकान्तवाद को स्वीकार करता है, नयवाद को शिरोमणि मानता है, वह दर्शन दूसरे दर्शनों का खण्डन करे, यह बात समझ से परे है किन्तु ऐसा हुआ है, इस सचाई को नकारा नहीं जा सकता। अनेक जैन आचार्यों ने खंडन का मार्ग अपनाया। किन्तु समय-समय पर अनेक आचार्यों ने महावीर का अनुगमन किया, समन्वय की नीति का प्रयोग किया। समन्वय ग्रन्थ : शास्त्र वार्ता-समुच्चय
आचार्य हरिभद्र सूरि ने एक ग्रन्थ लिखा-शास्त्रवार्ता-समुच्चय । वह बहुत अद्भुत ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में सभी दर्शनों का स्पर्श है किन्तु खण्डन किसी भी दर्शन का नहीं है। उसमें सभी दर्शनों का नय दृष्टि से समर्थन है। आचार्य हरिभद्र ने शास्त्रवार्ता-समुच्चय में ईश्वरकर्तृत्ववाद का भी समर्थन किया है। नय दृष्टि से विचार करें तो कोई भी विचार असत्य नहीं हो सकता। जितने वचन के प्रकार हैं, बोलने के प्रकार हैं, सोचने के प्रकार हैं, वे सब नय हैं। नय का खंडन कैसे किया जा सकता है ? आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि आचार्यों ने संग्रह और व्यवहार--इन दो दृष्टियों से सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक आदि दर्शनों का समाहार किया है। एक जैन आचार्य ने कितना मार्मिक लिखा है--जैसे समुद्र में सारी नदियां गिरती हैं वैसे ही सारे विचार अनेकान्त के महासमुद्र में समाहित हो जाते हैं। नदियों में समुद्र नहीं है किन्तु समुद्र में सारी नदियां मिल जाती हैं। एकान्त नयों में अनेकान्त नहीं है किन्तु अनेकान्त में सारे नय समाहित हो जाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org