Book Title: Chandani Bhitar ki
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 187
________________ असहयोग का नया प्रयोग १७३ करने वाली है। एक वह चिन्तन धारा, जो करुणा, अहिंसा और मैत्री में विश्वास करने वाली है। करुणा का निदर्शन श्रीमद् राजचन्द्र की घटना को हम जानते हैं। हम इस संदर्भ में देखें- करुणा का कितना विकास हुआ था। राजचंद्र ने सौदा किया, उसमें उसे पचास हजार का लाभ हो रहा था। उस समय पचास हजार की कीमत भी बहुत थी। जिसके साथ सौदा किया, वह बहुत मुसीबत में फंस गया। राजचंद्र ने उस एग्रीमेंट के पत्र को मंगाया और यह कहते हुए फाड़ दिया--राजचंद्र दूध पी सकता है लेकिन किसी का खून नहीं पी सकता। यह है मनुष्य में करुणा के विकास का निदर्शन। कहां से कहां तक पहुंचा दिया प्रकृति के नियम को । शक्ति के सिद्धान्त को अतिकान्त कर श्रीमद् राजचन्द्र ने अहिंसा का जीवंत रूप प्रस्तुत कर दिया। मानवीय चेतना बीदासर के संभ्रांत श्रावक हुए हैं श्री उत्तमचंद जी बैंगानी । उनके युवा पुत्र का देहावसान हो गया। पता चला यह जो हीरे की अंगूठी है, जिसे आपका पुत्र पहनता है, वह अच्छी नहीं है। रत्नों की यह प्रकृति है। यदि वह अच्छा आता है तो निहाल कर देता है और बुरा आता है तो घर को बरबाद कर देता है। मित्रों ने सलाह दी - इस अंगूठी को बेच दें । उत्तमचंद जी ने कहा- मैं इसे बेचूंगा नहीं। इसे कुएं में डाल दो। उस अंगूठी में बहुत कीमती हीरा था। मित्रों ने रोकने की कोशिश की इतना कीमती हीरा कुएं में क्यों डाल रहे हो। इसे किसी को बेच दो। हीरे खरीदने वाले बहुत मिल जाएंगे। उत्तमचंद जी ने भावपूर्ण शब्दों में कहा- मैं इस हीरे के कारण किसी पिता को पुत्र वियोग से पीड़ित देखना नहीं चाहता। हीरे के कारण मेरा पुत्र चला गया, उसकी पीड़ा मैंने भोगी है। मैं नहीं चाहता, किसी पिता को पुत्र वियोग से पीड़ित होना पड़े। बैंगानीजी ने वह अंगूठी कुएं में डलवा दी। अरिष्टनेमि की जिज्ञासा यह है मानवीय चेतना का विकास। जिसमें करुणा का इतना विकास होता है, वह किसी को दुःख देने की बात सोच ही नहीं सकता। इन सारे संदर्भों में अरिष्टनेमि द्वारा विवाह के अस्वीकार की बात को पढ़ते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होता। वे तीर्थंकर होने वाले थे, उनकी अतीन्द्रिय चेतना जागृत थी, करुणा और अहिंसा विकसित थी। उनके जीवन का वह घटना प्रसंग सचमुच उदात्त करुणा का निदर्शन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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