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संवाद : नाथ और अनाथ के बीच
संघर्ष-बीज
शिष्य ने जिज्ञासा की--मंते ! इस दुनिया में यह संघर्ष क्यों चलता है। यह आरोप और प्रत्यारोप क्यों चलता है ? एक कहता है-तू अज्ञानी है। एक कहता है-तू अज्ञानी है। एक कहता है--तू झूठा है। एक कहता है-तुम जानते ही नहीं। इस प्रकार का यह व्यवहार क्यों चलता है। इसका कारण क्या है?
आचार्य ने कहा--वत्स ! कारण क्या बताऊं ! प्रकृति को मान्य यही है। शिष्य ने कहा--प्रकृति को यही मान्य क्यों है ?
आदमी क्या करे ? प्रकृति में संघर्ष के बीज छिपे हुए हैं। मनुष्य की रचना ही ऐसी हो गई है कि उसमें संघर्ष, आरोप-प्रत्यारोप के बीज छिपे मिलते हैं। कारण यह है-भाव तो अदृश्य है, दिखाई नहीं देता और भाषा दृश्य है, सामने आती है। आधा तो दिखाई देता है और आधा दिखाई नहीं देता। यह है संघर्ष का बीज, जो प्रकृति में चारों तरफ बिखरा पड़ा है। यह भाषा और भाव का संघर्ष, यह दृष्टिकोण और भाषा का संघर्ष शायद मनुष्य जब से था तब से शुरू हुआ है और जब तक मनुष्य रहेगा तब तक चलेगा।
अदृश्यो वर्तते भावो, भाषा दृश्या ततः स्फुटम्।
संघर्षबीजमाकीर्ण, प्रकृतौ कि सृजेज्जनः।। तुलसीदासजी ने लिखा--वाणी बोलती है उसके आंख नहीं है। आंख देखती है उसके वाणी नहीं है-गिरा अनयन नयन बिनु वाणी।' प्रकृति की रचना में कितना अधूरापन है। जो बोलता है, वही देखता, जो देखता, वही बोलता तो शायद संघर्ष की संभावना बहुत कम हो जाती। जटिल प्रकिया
कितना जटिल तंत्र है हमारा । हम शब्द को कान से सुनेंगे, कान से सुनने के बाद मन उसको ग्रहण करेगा, पकड़ेगा, उसका संकलन करेगा। सुनने वाला एक है, संकलन करने वाला दूसरा है और निर्णय करने वाला तीसरा है। विवेक या बुद्धि
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