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चांदनी भीतर की
जाग गई। एक आकस्मिक निमित्त बन गया चोर । मूलतः समुद्रपाल का उपादान बहुत शक्तिशाली था, वह फूटना ही चाहता था। चोर का निमित्त मिला और वह प्रगट हो गया। व्यक्ति कुछ होना चाहता है और कोई निमित्त मिल जाता है तो व्यक्ति की चेतना जाग जाती है। कोई गुरु या मार्गदर्शक का योग मिलता है, व्यक्ति के भीतर की चाह आकार ले लेती है। छह माह के लिए __आचार्य भिक्षु सिरियारी से कुशलपुर की ओर जा रहे थे। मार्ग में अच्छे शुकून नहीं हुए। आचार्य भिक्षु ने कुशलपुर न जाकर नीमली की ओर जाने का निश्चय कर लिया। वे उस मार्ग को छोड़ नीमली की ओर जाने वाले मार्ग पर आ गए। श्रावक हेमराजजी सिरियारी से नीमली की ओर जा रहे थे। वे वैरागी थे। आचार्य भिक्षु ने कहा-हेमड़ा ! हम आ रहे हैं।
हेमराजजी बोले--स्वामीजी! आपने तो कुशलपुर की ओर विहार किया था। फिर इधर कैसे?
यही समझ ले कि आज हम तेरे लिए आए हैं। आपने बड़ी कृपा की।
तू लगभग तीन वर्ष से कह रहा है-मेरी दीक्षा लेने की भावना है, पर यह बता--तू मेरे जीते जी दीक्षा लेगा या मरने के बाद ?
आप ऐसी बात क्यों करते हैं ? यदि आपको शंका हो तो नौ वर्ष बाद अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग करा दें।
आचार्य भिक्षु ने त्याग करवा दिए। स्वामीजी ने कहा-लगता है तुमने ये नौ वर्ष विवाह करने की इच्छा से रखे हैं।
हां महाराज! परन्तु तुम यह तो जानते हो-एक वर्ष विवाह होते-होते लग जाएगा। हां महाराज ! इतना तो लग ही जाएगा। यहां की प्रथा के अनुसार विवाह के बाद एक वर्ष तक स्त्री पीहर में रहेगी। हां महाराज! इस प्रकार तुम्हारे पास केवल सात वर्ष का समय रहेगा। हां महाराज ! तुम्हें दिन में अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग है इसलिए साढ़े तीन वर्ष ही रहेंगे। हेमराजजी ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाया।
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