Book Title: Chandani Bhitar ki
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 176
________________ चोर से अचौर्य की प्रेरणा एक पवित्र चेतना ने पवित्र आत्मा की स्तुति की। प्रार्थना के स्वर में कहा-सिद्ध! मुझे आरोग्य दें, बोधि-लाभ दें, समाधि दें। आरोग्य बोहिलाभं समाहिवर मुत्तमं दिन्तु।। एक ओर इस स्वर की स्वीकृति दूसरी ओर सिद्ध के कर्तव्य या अधिकार का प्रश्न। विरोधाभास जैसी बात प्रतीत होती है। वस्तुतः तत्व की गंभीरता इतनी होती है कि बाहरी सतह पर विरोधाभास जैसा प्रतीत होता है, किन्तु आंतरिक स्तर पर पहुंच जाएं तो पूर्ण सामंजस्य प्रतीत होता है। उपादान : निमित्त कारण की मीमांसा में सहकारी कारण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। हम इस सचाई को जानते हैं-सिद्ध कुछ करेंगे नहीं किन्तु वे सहकारी कारण तो बनते ही हैं। यह प्रार्थना निमित्त या सहकारी कारण की प्रार्थना है। सिद्ध हमारे लिए सहकारी है, हमारा सहकार करते हैं। सिद्ध भक्ति में जो आत्मा परिणत है, उस आत्मा के लिए सिद्ध भी सहकारी बनते हैं। सिद्ध की स्तुति निमित्त कारण की स्तुति है। हम दोनों कारणों को सार्थक मानकर चलें। उपादान और निमित्त के अनेक विकल्प और अंग बन जाते हैं। ये दोनों विकल्पों के कारण ही जटिल बनते हैं इसलिए इनके लिए कोई एक नियम बनाना मुश्किल है। फिर भी यह निश्चित तथ्य है--जो उपादान में नहीं है, उसके लिए निमित्त कुछ नहीं कर सकता। जो उपादान में है, निमित्त में वह करने की शक्ति नहीं है। यदि निमित्त ऐसा करने लग जाए तो सारी व्यवस्थाएं गड़बड़ा जाए। उपादान अपना काम करता है, पर कभी-कभी उसे निमित्त की जरूरत होती है, किन्तु निमित्त की कोई अनिवार्यता नहीं है। यह एक सामान्य नियम है। उपादान यदि सापेक्ष है तो निमित्त सहकारी बन सकता है। उपादान यदि निरपेक्ष है तो निमित्त अकिंचित्कर बन जाएगा। सापेक्ष सत्युपादाने, निमित्तं सहकारकम्। निरपेक्षे युपादाने, तदकिचित्करं भवेत्।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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