________________
१२६
चांदनी भीतर की
हूं, वह निश्चित ही सफल हो जाता है। मृगापुत्र के मन में यह विश्वास पैदा हो गया--में मुनि बनूंगा और बहुत सफल मुनि बनूंगा। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं। उसने पूरे आत्म-विश्वास के साथ माता-पिता के सामने अपनी बात रखी, अपना तर्क संगत पक्ष रखा। अकाट्य तर्क
जहां तर्क चलता है वहां जिसका तर्क कमजोर होता है, वह दब जाता है। मृगापुत्र का तर्क बहुत मजबूत था, माता-पिता सचमुच सोचने के लिए विवश बन गए। मृगापुत्र के सामने सत्य एक समुद्र जैसा था। माता-पिता के सामने एक छोटी सी तलैया थी। राज्य और वैभव एक छोटी तलैया है, जिसमें आदमी डूबकी लगाता है तो पूरा डूब भी नहीं पाता और पूरा ऊपर भी नहीं आ पाता। उस तलैया में नीचे तो दल-दल भरा पड़ा है। मृगापुत्र के सामने सत्य का एक विशाल समुद्र-सा लहरा रहा था, वह उसका साक्षात् कर रहा था। इस स्थिति में उसके तर्क कैसे अकाट्य नहीं बनेंगे? माता-पिता के लिए उसके तर्क अकाट्य बन गए। माता-पिता ने सोचा--क्या करें ? क्या आज्ञा दें ? नहीं ! नहीं!! एक प्रयत्न फिर करना चाहिए। कोई भी आदमी सीधी हार नहीं मानता। कमजोर भी सीधी हार नहीं मानता। छोटे से छोटा आदमी भी हार स्वीकारना नहीं चाहता। वे माता-पिता थे। माता-पिता होने का गर्व भी होता है। जो स्वयं को बड़ा मानता है, वह छोटे को छोटा ही मानेगा, चाहे वह कितना ही होशियार क्यों न हो ?
माता-पिता बोले--पुत्र ! आज काफी चर्चा की है। एक साथ दिमाग पर ज्यादा मार नहीं डालना चाहिए। तुम्हारी भावना और तर्क हमने सुन लिए हैं। पर क्या आज ही निर्णय करना जरूरी है ?
हमें भी थोड़ा सोचने का अवकाश दो और तुम भी जरा अवकाश लो, ठंडे दमाग से सोचो। कल फिर बात करेंगे, फिर सोचेंगे। निर्णय बहुत सोच समझकर लेना चाहिए ! सहसा जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। सहसा विदधीत न क्रियां'-इस सूक्त पर तुम भी मनन करो, हम भी मनन करेंगे। उस मनन से जो नेष्कर्ष निकलेगा, वह विवेकपूर्ण होगा, संपदा की दृष्टि करने वाला होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org