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अभवो पत्थिवा तुन्भं
प्रत्येक व्यक्ति अभय होना चाहता है। वह सदा भय से मुक्त होने की चर्चा करता रहता है। वस्तुतः जो दूसरों को डराता है, वह डर की चर्चा करने का अधिकारी नहीं है। अभय के लिए सबसे पहले डराने की बात छोड़ें, फिर डरने की बात ही न आएगी। डरो मत, अभय बनो, इसके स्थान पर यह सूत्र होना चाहिये-'डराओ मत' । यह सूत्र बनेगा तभी 'न डरो' का सूत्र मजबूत बनेगा ! भगवान महावीर ने दोनों बातें एक साथ कही--णो भायए नो वि य भावियप्पा-डरो मत और डराओ मत । इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। बुद्धि और अभय
राजर्षि ने राजा संजय से कहा-मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ पर तुम भी दूसरों को मत डराओ । यह अभय का बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। जहां व्यवहार का जीवन है, सामाजिक और संस्थागत मूल्यों का जीवन है, वहां बहुत बार डरना पड़ता है और डरना जरूरी भी हो जाता है। ___हम डरें तो बुद्धिमानी के साथ डरें। बुद्धि और डर एक बात है। जड़ और डर दूसरी बात है। मूर्ख वह होता है, जिसमें मूर्खता होती है और जड़ वह होता है, जो अपने खतरों से भी अनजान रहता है। न मूर्खता, न जड़ता किन्तु बुद्धि के साथ डरें। चूल्हा जलता है तो आदमी उसमें हाथ नहीं डालेगा। चूल्हा बुझा हुआ है तो वह हाथ से उसे साफ कर देगा क्योंकि उसमें समझ होती है। बुद्धि और अभय, बुद्धि
और मय-ये दोनों बातें साथ में होनी चाहिए। हम जड़ नहीं हैं कि खतरों से अनजान रहें। अभय कहां है ? ____ कहा जाता है-एक आतंकवादी डरता नहीं, सैनिक भी डरता नहीं। यह सही नहीं है। सैनिक अभय कहां है ? वह तो इतना भयभीत है कि शस्त्रों से लदा रहता है। अगर अभय होता तो शस्त्र कभी हाथ में लेता ही नहीं। एक योद्धा कभी अभय नहीं हो सकता, आतंकवादी कभी अभय नहीं हो सकता और अभय कोई जड़ भी
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