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साधुत्व की कसौटी
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बतलाए गए हैं - ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि। ये सारे कर्म हमारे शरीर के भीतर हैं, कहीं बाहर नहीं हैं, आकाश में टंगे हुए नहीं हैं। इस स्थूल शरीर के भीतर हैं। आठ कर्मो का एक संस्थान बना हुआ है। उस संस्थान का नाम है कर्मशरीर। हमारी पूरी प्रवृत्तियों का संचालन वह संस्थान कर रहा है। कर्मशरीर के निर्देश आते हैं, उनके प्रकंपन आते हैं, वे शरीर में आकर रसायन पैदा करते हैं। इस स्थूल शरीर में स्थान-स्थान पर चौकियां बनाई हुई हैं। उन चौकियों पर निर्देश आता है और उनके द्वारा संचालन होता रहता है। कर्म की सैकड़ों प्रकृतियां हैं, उनके सैकड़ों प्रकार के प्रकंपन हैं, प्रत्येक प्रकंपन ने अपना एक एक स्थान बना रखा है। जिस-जिस प्रकृति का विपाक आता है, उस-उस प्रकृति के प्रकंपन स्थूल शरीर में आते हैं। उन प्रकंपनों को क्रियान्वित करने के लिए उतनी ही चौकियां स्थूल शरीर में बनी हुई हैं। नाभिकमल
हमारी नाभि (तैजस केन्द्र) के पास दो ग्रंथियां हैं - एड्रिनल और गोनाड्स । कामवासना का केन्द्र है गोनाड्स और कषाय की अभिव्यक्ति का केन्द्र है एड्रीनल ग्लेण्ड । नाभि के आसपास ये दो मजबूत चौकियां हैं। जब तक मनुष्य की चेतना नाभि के आसपास काम करती है तब तक ईर्ष्या, भय, क्रोध, कलह आदि वृत्तियां जागती रहती हैं। पुराने आचार्यों ने अनेक कल्पनाएं कीं-नाभिकमल, हृदयकमल आदि । कमल की अनेक पंखुड़ियां और उन पंखुड़ियों में एक-एक वृत्ति की स्थापना । एक जैन आचार्य कल्पना की नाभि कमल की । उसमें बारह पंखुड़ियां हैं, वहां बारह प्रकार की वृत्तियां जागती हैं। जब तक हमारी चेतना नाभि के आसपास रहेगी तब तक साधुता की कल्पना नहीं की जा सकती। इस स्थिति में काम, क्रोध, ईर्ष्या-मत्सर आदि वृत्तियां ही जागेंगी। जब ये वृत्तियां जागेंगी, साधुता की बात समझ में नहीं आएगी।
ध्यान क्वाहं पर
आचार्य ने कहा- मैं कहां हूं, इस पर ध्यान देना बहुत महत्त्वपूर्ण है । केवल कोऽहं की ओर ध्यान देना पर्याप्त नहीं है। जब तक क्वाहं पर ध्यान नहीं जाएगा, तब तक अपनी स्थिति का यथार्थ बोध नहीं होगा । यदि स्वार्थ की चेतना जागृत हैं तो मानना चाहिए - हमारी चेतना नाभि के आसपास काम कर रही है। जो स्वार्थी है, केवल अपनी बात सोचता है, अपना हित देखता है, अपनी रोटी सेकता है, वह दूसरे के हित की बात नहीं सोच सकता। वह तिन्नाणं तारयाणं नहीं हो सकता। वह आत्मानुकंपी और परानुकंपी- दोनों का जोड़ा नहीं हो सकता । वस्तुतः वह अनुकंपी
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