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साधुत्व की कसौटी
शिष्य की जिज्ञासा
आचार्यश्री की सन्निधि में ध्यान का प्रयोग शुरू हुआ। ध्यान के प्रारम्भ में एक सूत्र दिया गया-'क्वाह' मैं कहां हूं, इस विषय पर विचय करो। इस पहेली को बुझाओ कि मैं कहां हूं। 'मैं कौन हूं-कोऽहं के स्थान पर मैं कहां हूं--क्वाऽहं का ध्यान। आधा घंटा बीता, ध्यान संपन्न हो गया। शिष्य ने जिज्ञासा की--
प्रश्न : कोऽहमिति ख्यातः क्वाहमित्यस्ति नो श्रुतः। ___गुरुदेव ! मैं कौन हूं, यह प्रश्न बहुत विख्यात है। इस प्रश्न को अनेक बार सुना है। पर मैं कहां हूं, इस प्रश्न को कभी सुना ही नहीं, यह नवीन प्रश्न है। मैं कहां हूं, इसमें खोजना क्या है? सबका अपना-अपना स्थान है, अपना-अपना घर है, अपनी अपनी विशेषताएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति जानता है-मैं कहां हूं। फिर यह प्रश्न प्रस्तुत क्यों किया ? आचार्य का समाधान
आचार्य ने कहा--वत्स ! मैं कौन हूं, यह जानना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी यह जानना है कि मैं कहां हूं। मैं कहां हूं यह जाने बिना व्यक्ति यह निश्चय कैसे करेगा-मुझे कहां जाना है। व्यक्ति की चेतना कहां है, इसी के आधार पर समझा जा सकता है कि वह कौन है ? ____ एक प्रश्न है-साधु कौन है ? तैजस केन्द्र का अतिक्रमण करके ही कोई व्यक्ति साधु बन सकता है, सम्यक् दृष्टि बन सकता है, श्रावक या धार्मिक बन सकता है।
तैजसं समतिक्रम्य, चैतन्यं साधुतां व्रजेत् । जब तक चेतना तैजस केन्द्र के आसपास परिक्रमा करती रहेगी तब तक व्यक्ति मिथ्यादृष्टि बना रहेगा, उसका कषाय प्रबल बना रहेगा, वह क्रोधी, अहंकारी और कामुक बना रहेगा। जब तक व्यक्ति यह नहीं जान लेता- मैं कहां हूं, मेरी चेतना कहां है-तब तक साधुता की बात समझ में नहीं आ सकती। कर्म के प्रकंपन
हमारे शरीर में अनेक केन्द्र बने हुए हैं। जैन-दर्शन में कर्म के आठ प्रकार
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