Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ छहढाला का सार दूसरा प्रवचन आप भगवान की पूजन में जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा - यह सबसे पहले बोलते हैं अर्थात् जन्म, जरा और मृत्यु के दुःख नष्ट हो जाये - ऐसी प्रार्थना करते हैं। सर्दी-गर्मी नष्ट हो जाये - ऐसी प्रार्थना नहीं करते, क्योंकि जन्म-मरण का दुःख ही सबसे बड़ा दुःख है और निगोद में - एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मस्यो भस्यो दुःख भार । निगोद में रहनेवाले जीव एक स्वांस में अठारह बार जन्मते हैं, अठारह बार मरते हैं और जन्म-मरण के दु:ख के भार को ढोते रहते हैं। छहढाला की पहली ढाल में जो क्रम दिया है, वह गतियों का नहीं, इन्द्रियों में क्रम है। ___ज्यों-ज्यों ज्ञान का विकास होता है, त्यों-त्यों दुःख कम होता जाता है। यह कैसे हो सकता है कि एक इन्द्रिय को दु:ख कम हो और दो इन्द्रिय को दुःख ज्यादा हो। निगोद से निकलकर वह जीव पृथ्वी हुआ, जल हुआ, अग्नि हुआ, वायु हुआ, वनस्पति हुआ, फिर दो इन्द्रिय हुआ, उसके बाद तीन इन्द्रिय में गया, फिर चार इन्द्रिय हुआ। ये सब तिर्यंच गति के दुःख हैं। उसके पश्चात् पाँच इन्द्रिय में गया; पर वहाँ पर भी असैनी अधिकतर तिर्यंचों में ही होते हैं; क्योंकि मनुष्य, देव और नारकी - ये तो सब सैनी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। इसलिए तिर्यंच गति का दुःख सबसे बड़ा दुःख है; क्योंकि उसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव सामिल हैं। जिसमें निगोद भी सामिल है; उस तिर्यंचगति के दुःख बताने के बाद नरकगति के दुःख बताये। उसके बाद मनुष्यगति में बचपन, जवानी और बुढ़ापे के दुःख बताने के उपरान्त देवगति में भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों के दुःख बताकर विमानवासी देवों के दुःख बताते बताते कह दिया कि वहाँ से च्युत होकर फिर जिसमें निगोद सामिल है - ऐसी एकेन्द्रिय पर्याय में चला गया। इसप्रकार इस जीव ने पंच परावर्तनों को पूरा किया। तहँते चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ।। इसप्रकार एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में लौकिक अनुकूलता और क्षयोपशमज्ञान का क्रमिक विकास है। आप जानते हैं कि जिस देवगति को हम सुख का खजाना मान रहे हैं; उस गति का देव मरकर एकेन्द्रिय भी हो सकता है लेकिन नारकी मरकर एकेन्द्रिय कभी नहीं होता। नारकी जीव नरक से निकलेगा तो नियम से सैनी पंचेन्द्रिय ही होगा । वह चार इन्द्रिय भी नहीं होगा अर्थात् कीड़ा-मकौड़ा भी नहीं होगा। सुनो ! देवों के खाने-पीने का, अभक्ष्यादि भक्षण का, परस्त्री सेवन का - कोई भी पाप नहीं है; फिर भी वह मरकर एकेन्द्रिय हो सकता है। नरकगति में तो मारकाट मची रहती है। अन्य जीव इसे मारतेकाटते हैं तो यह जीव भी दूसरों को मारता-काटता है। फिर भी एकेन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक की पर्यायों में वह नहीं जाता। ऐसा क्यों है ? - इस बात पर जरा गंभीरता से विचार करो। ___यदि आपको बिना रिजर्वेशन द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में जाना पड़े और सहज ही सोने की सीट मिल जाये तो आराम ही आराम है। सब कहेंगे सोने की सीट मिल गई, इससे बढ़िया बात क्या हो सकती है ? उस सीट के लिए हम कोशिश भी करते हैं। सौ-दौ सौ रुपये भी देने को तैयार हो जाते हैं। पर ध्यान रहे कि सोने की सीट मिलेगी तो सामान पार हो सकता है और खड़े-खड़े जाओगे तो सामान सुरक्षित रहेगा। सोनेवाले का सामान खोता है और जागनेवाला का नहीं खोता। (12)

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70