Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 22
________________ ३८ छहढाला का सार दूसरा प्रवचन और कोई व्यक्ति कुगुरु नहीं है; अपितु अदेव में देवबुद्धि, अशास्त्र में शास्त्रबुद्धि और अगुरु में गुरुबुद्धि ही कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु हैं। ___ जो वीतरागी-सर्वज्ञ नहीं हैं, वे सच्चे देव नहीं हैं; इसलिए अदेव हैं; जो सर्वज्ञ की वाणी के अनुसार नहीं हैं और वीतरागता के पोषक नहीं हैं, वे अशास्त्र हैं और जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न नहीं हैं, वे अगुरु हैं । इन अदेवों, अशास्त्रों और अगुरुओं को देव, शास्त्र, गुरु मानना ही क्रमशः कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुसंबंधी मान्यता है। अदेव को देव मानना ही कुदेवसंबंधी मिथ्या मान्यता है। इसीप्रकार अगुरु को गुरु मानना कुगुरुसंबंधी मिथ्या मान्यता है। ___ एक अध्यापक अंग्रेजी पढ़ाता है, उसे भी गुरुजी कहते हैं और महाराष्ट्र में तो हर अध्यापक को गुरुजी कहते हैं। गोपालदासजी बरैया को भी गुरुजी कहा जाता था। उन्हें तुम देव-शास्त्र-गुरु वाला गुरु मान लो तो तुम्हारी मान्यता कुगुरु हो गई। आज से पचास वर्ष पूर्व सन् १९५६ में लिखी गई मेरी देव-शास्त्रगुरु पूजन की जयमाला में मैंने सच्चे गुरु का स्वरूप इसप्रकार प्रस्तुत किया है दिन-रात आत्मा का चिंतन, मृदु संभाषण में वही क निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी प्रगट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी स्वातम में सदा विचरते जो। ज्ञानी ध्यानी समरससानी द्वादश विधि तप नित करते जो।। चलते-फिरते सिद्धों से गुरु चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चले आपके कदमों पर नित यही भावना भाते हैं।। जैन गुरु तो दिन-रात आत्मा के चिन्तन में मग्न रहते हैं और कोमल मधुर वाणी में उक्त आत्मा का ही प्रतिपादन करते हैं। तात्पर्य यह है कि मुनिराज निरन्तर चिन्तन भी आत्मा का ही करते हैं और जब बोलते हैं तो प्रतिपादन भी भगवान आत्मा का ही करते हैं। उनके सम्पूर्णत: निर्वस्त्र नग्न दिगम्बर शरीर से भी उनके अन्तर्मन की पवित्रता प्रगट होती है। ____ चौबीस परिग्रहों से रहित वे दिगम्बर संत सम्यग्ज्ञानी तो हैं ही; साथ में निरन्तर अपने आत्मा में विचरण करते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि वे आत्मध्यान में ही मग्न रहते हैं। ऐसे ज्ञानी, ध्यानी संत समतारूपी रस से सराबोर रहते हैं और बारह प्रकार के तपों को तपते रहते हैं। वे गुरुराज एक प्रकार से चलते-फिरते सिद्ध ही हैं; हम उनके चरणों में अपना मस्तक झुकाते हैं और निरन्तर यही भावना भाते हैं कि हम सदा आपके चरणचिह्नों पर चलते रहें, आपका ही अनुकरण करते रहें। इसप्रकार वीतरागी सर्वज्ञ देव, उनकी वाणी के प्रतिपादक शास्त्र और उस वाणी का अनुसरण करनेवाले निग्रंथ गुरु ही देव-शास्त्र-गुरु हैं। रागी-द्वेषी अल्पज्ञ देव, उनकी वाणी और उनके बताये रास्ते पर चलनेवाले गुरु ही कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु हैं। ___ कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र के निमित्त से जो हमारी सात तत्त्वों के विषय में भूल होती है, उसको बोलते हैं गृहीत मिथ्यात्व और जो अनादि कालीन भूल है; वह है अगृहीत मिथ्यात्व। इसीप्रकार राग-द्वेष पोषक शास्त्रों को सही मानकर उनका अभ्यास करना गृहीत मिथ्याज्ञान है और सात तत्त्वसंबंधी मिथ्या श्रद्धा से रहित ज्ञान अगृहीत मिथ्याज्ञान है। अब अगृहीत मिथ्याचारित्र की बात करते हैं - इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्या चारित्र । उक्त अगृहीत मिथ्यात्व सहित पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति अगृहीत (20)

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