Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 49
________________ छहढाला का सार में आत्मा का स्वयं से एकत्व और पर से भिन्नत्व की चर्चा करने पश्चात् अब अशुचि भावना में अत्यन्त नजदीक के संयोगरूप शरीर की अशुचिता की चर्चा करते हैं। आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाही इस शरीर की वास्तविक स्थिति क्या है ? - यह बताते हुये पं. दौलतरामजी इसी छहढाला में लिखते हैं - पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि तैं मैली। नव द्वार बहै घिनकारी, अस देह करै किम यारी ।। कफ और चर्बी आदि से मैली-कुचेली यह देह मांस, खून एवं पीपरूपी मल की थैली है। इसके आँख, कान, नाक, मुँह आदि नौ द्वारों से निरन्तर घृणास्पद मैले पदार्थ ही बहते रहते हैं। हे आत्मन् ! तू ऐसी घृणास्पद इस देह से यारी (मित्रता, स्नेह) क्यों करता है? उक्त सन्दर्भ में कविवर पण्डित भूधरदासजी की वैराग्यभावना में प्रस्तुत निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं - देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई। सागर के जल सौं शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई।। सात कुधातमयी मलमूरत, चाम लपेटी सोहै। अन्तर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है।। नव मलद्वार सवै निशि-वासर, नाम लिए घिन आवै। व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै ? पोषत तो दुख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै। दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै ।। राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजे, यामैं सार यही है।' यह देह अत्यन्त अपवित्र है, अस्थिर है, घिनावनी है; इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है, सागरों के जल से धोये जाने पर भी शुद्ध होनेवाली नहीं है। १. पार्श्वपुराण, पृष्ठ ३४-३५ पाँचवाँ प्रवचन चमड़े में लिपटी शोभायमान दिखनेवाली यह देह सात कुधातुओं से निर्मित मल की मूर्ति ही है; क्योंकि अन्तर में देखने पर पता चलता है कि इसके समान अपवित्र जगत में अन्य कोई पदार्थ नहीं है। इसके नव द्वारों से दिन-रात ऐसा मैल बहता रहता है, जिसके नाम लेने से ही घृणा उत्पन्न होती है। जिसे अनेक व्याधियाँ और उपाधियाँ निरन्तर लगी रहती हैं, उस देह में रहकर आजतक कौन बुद्धिमान सुखी हुआ है ? ___ इस देह का स्वभाव दुर्जन के समान है; क्योंकि इसमें भी दुर्जन के समान पोषण करने पर दु:ख और दोष उत्पन्न होते हैं और शोषण करने पर सुख उत्पन्न होता है। फिर भी यह मूर्ख जीव इससे प्रीति बढ़ाता है। इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु छोड़ने योग्य ही है; अत: हे भव्य प्राणियों ! इस मानव तन को पाकर महातप करो; क्योंकि इस नरदेह पाने का सार आत्महित कर लेने में ही है। उक्त छन्दों में देह के अशुचि स्वरूप का वैराग्योत्पादक चित्रण कर अन्त में यही कहा गया है कि 'अस देह करे किम यारी' अर्थात् ऐसी अशुचि देह से क्या प्रेम करना ? तथा 'राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है' अर्थात् इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है। मैंने स्वयं अशुचि भावना के सन्दर्भ में लिखा है कि - इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयेगी। वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायेगी।। किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा । वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा ।। जो पानी सबको पवित्र करता है, वह पानी मुँह के स्पर्श से अपवित्र (जूठा) हो जाता है। हाथ की चक्की का आटा, अठपहरा शुद्ध घी और कुये के पवित्र पानी से बना हुआ परम पवित्र हलुआ इस मुँह के स्पर्शमात्र से अपवित्र हो जाता है। उक्त हलुवा खाने के दस मिनिट बाद ही वमन (47)

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