Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ ९४ छहढाला का सार हो जावे तो कोई उसे छूना भी पंसद नहीं करता और यदि वह हलुवा आठ-दस घंटे शरीर के संयोग में रहकर किसी रास्ते बाहर आवे तो लोग उसे देखना पसंद नहीं करते, उसका नाम लेना पसंद नहीं करते। उस परम पवित्र हलुवा की यह दुर्दशा इस देह की संगति से ही तो हुई है। समझ लो यह देह कितनी पवित्र है ? पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस देह के संयोग में अनंत काल रहने पर भी जो आत्मा स्वभाव से अपवित्र नहीं हुआ, परमपवित्र ही बना रहा; वह आत्मा ही जानने योग्य है, श्रद्धान करने योग्य है और ध्यान करने योग्य है; क्योंकि उस आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान से ही अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है। इसप्रकार हम देखते हैं कि अनित्यभावना से लेकर अशुचिभावना तक का सम्पूर्ण चिन्तन संयोगी पदार्थों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। संयोगी पदार्थों में भी आत्मा के अत्यन्त निकटवर्ती संयोगी पदार्थ होने से शरीर ही केन्द्रबिन्दु बना रहा है। अनित्यभावना में मृत्यु की चर्चा करके शरीर के संयोग की ही क्षणभंगुरता का चिन्तन किया गया है। अशरणभावना में मरने से कोई बचा नहीं सकता' की बात करके शरीर के संयोग को अशरण कहा जाता है। इस संसार में अनेक देहों को धारण किया, पर किसी देह के संयोग में सुख प्राप्त नहीं हुआ। शरीर के संयोग-वियोग का नाम ही तो जन्म-मरण है; जन्म-मरण के अनन्त दुःख भी जीव अकेला ही भोगता है, कोई भी संयोग साथ नहीं देता; देहादि सभी संयोगी पदार्थ आत्मा से अत्यन्त भिन्न ही हैं - यही चिन्तन एकत्व और अन्यत्व भावनाओं में होता है। अपने और पराये शरीर की अशुचिता का विचार ही अशुचिभावना में किया जाता है। इसप्रकार यह निश्चित है कि उक्त सम्पूर्ण चिन्तन देह को केन्द्रबिन्दु बनाकर ही चलता है। उक्त सम्पूर्ण चिन्तनप्रक्रिया का एकमात्र प्रयोजन पाँचवाँ प्रवचन दृष्टि को देहादि संयोगी पदार्थों पर से हटाकर स्वभावसन्मुख ले जाना है। उक्त प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर ही अनित्यादि भावनाओं की चिन्तन-प्रक्रिया के स्वरूप का निर्धारण हुआ है। अबतक का सम्पूर्ण चिन्तन वैराग्यप्रेरक था; जिसने चित्त की भूमि को तत्त्वज्ञान का बीज बोने योग्य बना दिया। अतः अब आगे की भावनाओं में तत्त्वसंबंधी चिन्तन चलेगा। संयोगों की चर्चा के उपरान्त अब संयोगी भावरूप आस्रव, बंध और पुण्य-पाप के प्रतिनिधि के रूप में आस्रव भावना की चर्चा करते हैं। यह तो आप जानते ही हैं कि बारह भावनाओं में पुण्य, पाप और बंध नाम की कोई भावना नहीं है। अत: यह स्वाभाविक ही है कि ये आस्रवभावना में ही सामिल हैं। जो योगन की चपलाई ताते है आम्रव भाई। आस्रव दुखकार घनेरे बुधिवंत तिने निरवेरे ।। मन-वचन-काय रूप योगों के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में कंपन होता है, उससे कर्मों का आस्रव होता है। ये आस्रव घना दुःख देनेवाले हैं; इसलिए बुद्धिमान लोग उनका निरोध कर देते हैं। पुण्यास्रव और पापास्रव के भेद से आस्रव दो प्रकार का होता है। इसीप्रकार शुभास्रव और अशुभास्रव के भेद से भी आस्रव दो प्रकार का माना गया है। ध्यान रहे बंध के कारणभूत आस्रवभाव चाहे शुभरूप हों, चाहे अशुभरूप; चाहे पुण्यरूप हों, चाहे पापरूप - सभी आस्रवों को यहाँ घना दुःख देनेवाला कहा गया है। समयसार की ७२वीं एवं ७४वीं गाथाओं में भी बिना किसी भेदभाव के सभी प्रकार के आस्रवभावों को अशुचि, अध्रुव, अनित्य, दु:खरूप और दुःख का कारण बताया गया है। (48)

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70