Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 65
________________ १२४ छहढाला का सार सातवाँ प्रवचन १२५ सदा ही दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यमय हूँ और अन्य कोई भाव मुझ में नहीं है। मैं ही साध्य हूँ, मैं ही साधक हूँ और मैं कर्म और उसके फलों से अबाधक हूँ; प्रचण्ड चैतन्य का पिण्ड हूँ, अखण्ड हूँ और सुगुणों का करण्ड (पिटारा) हूँ और पर्यायों में होनेवाले उतार-चढ़ाव से रहित हूँ। जिसप्रकार चन्द्रमा में सोलह कलायें होती हैं; वह प्रतिदिन घटताबढ़ता रहता है, एक-सा नहीं रहता। यही स्थिति संसार अवस्था में पर्यायों की है; वे कभी भी एक-सी नहीं रहती। यह भगवान आत्मा पर्यायों के उतार-चढ़ाव से रहित है। ___ यदि परप्रवृत्ति से निवृत्ति और स्वरूप में प्रवृत्ति ही स्वरूपाचरण है तो इसे प्राप्त करने के लिये स्व और पर के बीच भेदविज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि स्व और पर के बीच की सीमारेखा जाने बिना पर से निवृत्त होना और स्व में प्रवृत्त होना संभव नहीं है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि वर्णादि अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्शवाले देहादि पौद्गलिक पदार्थों और परलक्ष्य से अपने आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेषरूप भावों से निजभाव अर्थात् ज्ञानानन्द स्वभावी निजात्मा को अपनी तीक्ष्य प्रज्ञा से भिन्न पहिचान लिया है, भिन्न जान लिया है। समयसार कलश में भी कहा है - वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावा: सर्व एवास्य पुंसः ।' वर्णादि और रागादिरूप सभी भाव (पदार्थ) भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं। आत्मा ने यह कार्य न तो दूसरों से कराया है और न दूसरों के सहयोग से किया है; अपितु पर से भिन्न अपने आत्मा को, अपने लिये, अपने में, अपने द्वारा स्वयं ग्रहण किया है अर्थात् जान लिया है। यह जान लिया है कि यह ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा मैं ही हूँ। जब यह आत्मानुभवन की प्रक्रिया चलती है; तब ऐसे विकल्प नहीं उठते कि ज्ञान गुण है, आत्मा गुणी है; आत्मा ज्ञाता है, जानना ज्ञान है और जो जानने में आ रहा है, वह आत्मा ज्ञेय है। तात्पर्य यह है कि उक्त स्वरूपाचरण की अवस्था में गुण-गुणी और ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय संबंधी विकल्प खड़े नहीं होते। जिसप्रकार ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय संबंधी विकल्प खड़े नहीं होते; उसीप्रकार ध्यान-ध्याता-ध्येयसंबंधी विकल्प भी खड़े नहीं होते; वचनसंबंधी विकल्प खड़े नहीं होते । कर्ता-कर्म-क्रिया के सन्दर्भ में भी यही स्थिति है; क्योंकि चिदेश आत्मा कर्ता है, चिद्भाव (ज्ञान-दर्शन) कर्म है और चेतना (जानना-देखना) क्रिया है । एक द्रव्य की मर्यादा के भीतर होने से तीनों एक ही हैं, एक आत्मा ही हैं। शुद्धोपयोग अर्थात् स्वरूपाचरण की दशा में तीनों अभिन्न ही हैं; इसलिये अखिन्न हैं; किसी प्रकार की खिन्नता शुद्धोपयोग के समय नहीं होती। शुद्धोपयोग में दर्शन-ज्ञान-चारित्र की ऐसी निश्चल दशा प्रगट हो गई है कि जिसमें ये दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीन होकर भी एकरूप में ही शोभायमान हो रहे हैं। अनुभूति के काल में प्रमाण-नय-निक्षेप का उदय भी नहीं होता। तात्पर्य यह है कि प्रमाण-नय-निक्षेप संबंधी विकल्प भी खड़े नहीं होते। उसमें तो ऐसा भासित होता है कि मैं तो सदा ही ज्ञान-दर्शनसुख और बलमय हूँ; इनके अतिरिक्त कोई अन्य भाव मुझमें नहीं है। ____ मैं ही साध्य हूँ और मैं ही साधक हूँ तथा कर्म और कर्मफलों से मैं सदा ही अबाधक हूँ। तात्पर्य यह है कि मुझमें साध्य-साधक का भी भेद नहीं है, विकल्प नहीं है और कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की १. समयसार कलश ३७ (63)

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