Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 34
________________ छहढाला का सार ही आता है; किन्तु यहाँ सम्यग्दर्शन का वर्णन विगत ढाल में हो चुका है और सम्यग्ज्ञान का अब होगा - इसी अर्थ में उक्त प्रयोग हो गया है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ प्रगट होते हैं; तथापि उनमें कारण-कार्यभाव माना गया है। इस बात को समझाते हुये अगले ही छन्द में कहते हैं - सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ । लक्षण श्रद्धा जानि, दुह में भेद अबाधौ ।। सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई। युगपत् होते हूँ, प्रकाश दीपक रौं होई ।। यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है; तथापि उनमें लक्षणभेद है। सम्यग्दर्शन का लक्षण श्रद्धान करना है और ज्ञान का लक्षण जानना है। इनमें कारण-कार्य सम्बन्ध भी कहा गया है। जिसप्रकार दीपक और प्रकाश एक साथ ही प्रगट होते हैं, फिर भी दीपक को कारण और प्रकाश को कार्य कहा जाता है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ प्रगट होते हैं, फिर भी सम्यग्दर्शन को कारण और सम्यग्ज्ञान को कार्य कहा गया है। वस्तुतः बात यह है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र में मिथ्यापना मिथ्यात्व के कारण आता है; मिथ्यात्व गया तो तीनों एक साथ ही सम्यक् हो जाते हैं। आजकल बिक्री बढ़ाने के लिए व्यापारियों ने एक नई पद्धति चलाई है कि एक वस्तु खरीदो तो उसीप्रकार की दूसरी वस्तु निःशुल्क प्राप्त होगी। इसीप्रकार यहाँ है कि आप सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ कीजिये तो उक्त पुरुषार्थ से ही सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान की भी प्राप्ति हो जायेगी। तात्पर्य यह है कि ज्ञान को सम्यग्ज्ञान होने के लिये अलग से पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता। चौथा प्रवचन आप कह सकते हैं कि व्यर्थ के इस व्यायाम से क्या लाभ है ? इससे अच्छा तो यही है कि उस वस्तु की आधी कीमत कर दी जावे। आधी कीमत करने से बिक्री बढ़ेगी नहीं; अपितु आधी रह जायेगी; क्योंकि माल तो उतना ही जायेगा, पर पैसे आधे आयेंगे। यदि किसी को एक समयसार चाहिये; तो वह आधी कीमत कर देने पर भी एक समयसार ही खरीदेगा; क्योंकि उसे दो ग्रन्थों की आवश्यकता ही नहीं है। यदि एक के साथ एक फ्री मिलेगा तो दो ले लेगा और दूसरा किसी को भेंटस्वरूप दे देगा। इसतरह एक की जगह दो समयसार बिक जायेंगे और एक समयसार ऐसे व्यक्ति के पास पहुँच जायेगा कि जिसके पास पहुँचाना संभव ही नहीं था; वह तो खरीदनेवाला था नहीं; क्योंकि उसे समयसार की आवश्यकता ही नहीं थी। ___एक के साथ एक वस्तु फ्री मिलने का ऐसा मनोवैज्ञानिक आकर्षण है कि व्यक्ति उस पर आकर्षित हुये बिना नहीं रहता। इसी मनोवैज्ञानिक आकर्षण का प्रयोग यहाँ पण्डित दौलतरामजी ने किया है कि सम्यग्दर्शन प्राप्ति का पुरुषार्थ करे तो सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान भी प्राप्त हो जायेगा, अनन्तानुबंधी कषाय चौकड़ी चली जाने से चारित्र गुण में सम्यक्पना आ जायेगा। वस्तुस्थिति ऐसी है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पहले पाँच लब्धियाँ होती हैं। इनमें तीसरी लब्धि है देशनालब्धि । देशनालब्धि में भगवान आत्मा को, सात तत्त्वों को सर्वज्ञ की वाणी को सुनकर या उनकी वाणी के अनुसार लिखे गये शास्त्रों को पढ़कर या उनके मर्म को समझनेवाले ज्ञानी धर्मात्माओं से सुनकर समझा जाता है। यद्यपि उक्त समझ भी सत्यज्ञान है; तथापि जब तक आत्मानुभूति नहीं हो जाती, तब तक वह सत्यज्ञान भी सम्यग्ज्ञान नाम नहीं पाता। आत्मानुभूति के काल में उक्त सही जानकारी सम्यग्ज्ञान के रूप में और (32)

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