Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 33
________________ छहढाला का सार तक भलीभाँति उग्र तप करें, तब भी उन्हें बोधि (रत्नत्रय) की प्राप्ति नहीं होती है। __अधिक कहने से क्या लाभ है, इतना समझ लो कि आज तक जो जीव सिद्ध हुये हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना न तो आज तक कोई सिद्ध हुआ है और न भविष्य में होगा। इसप्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसे सभी धर्मों का मूल कहा गया है। इसके बाद अंतिम चेतावनी देते हुये पं. दौलतरामजी लिखते हैं - मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा। सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।। 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं चौथा प्रवचन तीन भुवन में सार, वीतराग-विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार, नमहूँ त्रियोग सम्हारिकै।। पहली ढाल में यह बताया था कि चारों गतियों में दुःख ही दुःख हैं, संसार में सुख कहीं भी नहीं है। दूसरी ढाल में उक्त दु:खों के कारणरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की चर्चा की। तीसरी ढाल में उन दुःखों से मुक्त होने के उपायरूप निश्चय-व्ययहार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की सामान्य चर्चा करके सम्यग्दर्शन के स्वरूप और महिमा पर विशेष प्रकाश डाला। अब इस चौथी ढाल में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप समझाकर, महिमा बताकर, देशचारित्र का निरूपण करेंगे। चौथी ढाल के प्रारंभिक दोहे में ही कहा है - सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान । स्व-पर अर्थ बह धर्मजुत, जो प्रगटावन भान ।। सम्यक् श्रद्धा धारण करके सम्यग्ज्ञान का सेवन करो; क्योंकि वह सम्यग्ज्ञान अनन्तधर्मात्मक स्व-पर पदार्थों को प्रगट करने के लिये सूर्य के समान है। जिसप्रकार सूर्य के प्रकाश में सभी पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं; उसीप्रकार सम्यग्ज्ञान में भी सभी स्व-पर पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं। उक्त दोहे में तो यह कहा है कि सम्यग्दर्शन को प्रगट करने के उपरान्त सम्यग्ज्ञान का सेवन करना चाहिये; परन्तु अगले ही छन्द में यह कहा है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही प्रगट होते हैं। बात तो यही सही है कि ज्ञान और श्रद्धा में सम्यक्पना एक साथ यह सम्यग्दर्शन मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है। इस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते। इसलिए हे भव्यजीवों! जैसे भी बने इस सम्यग्दर्शन को अवश्य धारण करो। दौलतरामजी कहते हैं कि यदि तुम सयाने (समझदार) हो तो सुनो, समझो और चेतो, व्यर्थ में समय खराब मत करो; क्योंकि यदि इस भव में सम्यग्दर्शन नहीं हुआ तो दुबारा यह मनुष्यभव मिलना अत्यष्टपाठिशवपाहुड़, गाथा २ एवं छहढाला : ढाल ३, छन्द १६ (31)

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