Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 35
________________ छहढाला का सार उसी का श्रद्धान तथा आत्मा में अपनापन सम्यग्दर्शन के रूप में परिणमित हो जाता है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति एक साथ होती है, फिर भी ये दोनों क्रमश: श्रद्धा गुण और ज्ञान गुण की पर्यायें हैं; इसलिये अन्य-अन्य ही हैं। ___एक यात्री को पेट में भयंकर दर्द हुआ और वह तड़फने लगा; तब सामने बैठे यात्री ने अपनी जेब से एक पुड़िया निकाली और कहा - भैया ! यदि यह दवाई खाओंगे तो तुम्हारा दर्द ठीक हो सकता है। तब उसने कहा - तुम जैसे बहुत देखे हैं, मैं सारे हिन्दुस्तान का चक्कर काट चुका हूँ, अनेकों बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया है; परन्तु कोई भी मेरा पेटदर्द ठीक नहीं कर पाया और तुम ......। - इसने कहा - भैया ! इसमें क्या तकलीफ है ? मैं तुमसे पैसा तो माँग नहीं रहा हूँ। मुफ्त की पुड़िया है, खाकर देख लो, ठीक हो जायेगा तो अच्छा है, नहीं हुआ न सही। ऐसा कहते हुये उसने वह पुड़िया उसके हाथ में जबरदस्ती रख दी। इसने अरुचिपूर्वक ले तो ली, लेकिन धीरे से वहीं छोड़ दी, वह नीचे गिर गई। बहुत देर तक वह पुड़िया वहीं नीचे पड़ी रही। जिसने पुड़िया दी थी, वह रेल से अगले स्टेशन पर उतर गया। उसके बाद जब उसे बहुत दर्द हुआ और कोई इलाज नहीं दिखा तो उसके मन में आया कि इस पुड़िया को खाकर देखू। तब उसने वह पुड़िया खायी और सचमुच पाँच मिनिट में दर्द ऐसा गायब हुआ कि जैसे गधे के सिर से सींग गायब हो गया हो। अब वह आदमी सामने नहीं है, उससे पूछा भी नहीं था कि वह कौन से गाँव का है और क्या नाम है? न मालूम पुड़िया में क्या था, कैसी दवाई थी ? कुछ पता नहीं। चौथा प्रवचन ____६५ अब उसको उस दवाई पर पक्की श्रद्धा हो गई; क्योंकि अब वह उसका अनुभव कर चुका है; अतः अब उस देनेवाले की तलाश करता है, समाचर-पत्रों में और टी. वी. पर विज्ञापन देता है। सब तरह से उसकी खोज करता है; क्योंकि उसे यह पता नहीं है कि उस पुड़िया में क्या था, उस दवा का नाम क्या था ? ___ अब दवा के साथ-साथ उस व्यक्ति पर भी अटूट विश्वास हो गया है। कुछ-कुछ विश्वास तो पहले भी था, अन्यथा वह उस दवाई को खाता ही नहीं; किन्तु खाने के बाद आराम होने पर जैसा अटूट विश्वास हुआ है, वैसा पहले नहीं था - यह बात भी परमसत्य है; क्योंकि होता तो दवाई उसी समय खा लेता। ज्ञानीजनों ने करुणा करके सीख दी और हमने उपेक्षा से उड़ा दी। वह सीख वहीं पर पड़ी रही। दो-चार बातें कान में पड़ गई थी, जब भयंकर पीड़ा हुई और कोई रास्ता नहीं दिखा, तब वह रास्ता अपनाया और थोड़ी शान्ति प्राप्त हुई। तो अब उन ज्ञानीजनों की तलाश करते हैं। ___यद्यपि गुरुमुख से प्राप्त ज्ञान तो पहिले भी था, लेकिन जब पक्की श्रद्धा हुई, तब उस ज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान पड़ा । सात तत्त्व उसने आज ही नहीं सीखे हैं, वे तो पहले भी सीखे थे और पर से भिन्न आत्मा है - यह भी पहले सुना था । छहढाला की पंक्तियाँ बराबर रटीं थीं। अम्माजी ने सारी जिंदगी पाठ किया था। लेकिन वह समझ में नहीं आया तो नहीं आया। लेकिन जिस दिन वह सम्यग्दर्शन पैदा होगा, तो यही ज्ञान सम्यग्ज्ञान में परिणमित हो जायेगा । दृष्टि मिलनी चाहिए। हमारी भी यही हालत थी, हम शास्त्री हो गये थे, न्यायतीर्थ हो गये थे, रोजाना प्रवचन करते थे, बिना चैलेंज के कोई प्रवचन समाप्त नहीं होता था। न्यायशास्त्र पर पूरा अधिकार था, पर तत्त्वज्ञान से शून्य ही थे। जिस दिन स्वामीजी से यह तत्त्वज्ञान मिला, उस दिन हमारा वह सारा ज्ञान सम्यग्ज्ञान के रूप में परिणमित हो गया। यह सौभाग्य सबको (33)

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