Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ छहढाला का सार आत्मा के सन्दर्भ में उक्त दोषों से रहित आत्मानुभूतिपूर्वक सम्यक् निर्णय होना ही सम्यग्ज्ञान है। अन्त में कहते हैं कि हे भाई! दुर्लभ मनुष्यपर्याय, सदाचार सम्पन्न उच्च कुल और जिनवाणी सुनने को मिलना, रुचिपूर्वक पढ़ना-सुनना - यह सब अभी तुझे सहज संयोग से प्राप्त हो गया है; अतः सहज प्राप्त संयोग को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्राप्त किये बिना यों ही गवाँ देना समझदारी का काम नहीं हैक्योंकि यह सब एक बार गया सो गया, फिर मिलना सागर में फेके चिन्तामणि रत्न के समान अत्यन्त दुर्लभ है। ___यह हाथी-घोड़े, धन-संपत्ति, समाज और राज कुछ काम आनेवाले नहीं हैं। यदि तुमने सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लिया, केवलज्ञान प्राप्त कर लिया तो वह सदा ही अचल रहेगा, कभी भी चलायमान नहीं होगा। उस सम्यग्ज्ञान या केवलज्ञान की प्राप्ति का उपाय स्व और पर में भेद जानना है, अपने और पराये की पहिचान करना कहा गया है। इसलिए हे भव्यजीवो ! करोड़ों उपाय करके भी उस भेदविज्ञान को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करने की बात हृदय में ठान लो। उक्त भेदज्ञान की महिमा बताते हुये आगे कहते हैं - जे पूरब शिव गये, जाहिं अरु आगे जेहैं। सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं ।। विषय चाह दव दाह, जगत जन अरनि दझावै। तास उपाय न आन, ज्ञान घनघान बुझावे ।। पुण्य-पाप फल माहि, हरख बिलखौ मत भाई। यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै फिर थाई।। लाख बात की बात, यहै निश्चय उर लाओ। तोरि सकल जग दन्द-फन्द, निज आतम ध्याओ।। जो जीव भूतकाल में मोक्ष गये हैं, अभी जा रहे हैं और भविष्य में जायेंगे; वे सब भेदविज्ञान या सम्यग्ज्ञान के प्रताप से ही गये हैं। यह सब चौथा प्रवचन ७३ ज्ञान की ही महिमा है - ऐसा मुनियों के नाथ अरहंत भगवान कहते हैं। पंचेन्द्रिय विषयों की चाहरूपी दावाग्नि से जगतजनरूपी जंगल जल रहा है; उस भयंकर अग्नि को ज्ञानरूपी मेघों की वर्षा ही बुझा सकती है। अरे भाई ! पुण्य के फल में प्रसन्न होना और पाप के फल में बिलखना छोड़ो; क्योंकि यह सब तो पुद्गल का परिणमन है, जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता है और फिर उत्पन्न हो जाता है। लाख बात की एक बात तो यह है कि निश्चयनय द्वारा निरूपित आत्मा में अपनापन स्थापित करो और इस जगत के सम्पूर्ण दन्दफन्दों को छोड़कर निज आत्मा का ध्यान धरो। आचार्य अमृतचन्द्र समययसार की आत्मख्याति टीका में समागत कलश में लिखते हैं - (अनुष्टुभ् ) भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा: ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।१३१।।' (रोला) अबतक जो भी हए सिद्ध या आगे होंगे। महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की।। और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में। भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं ।।१३१।। आजतक जितने सिद्ध हुए हैं; वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई बंधे हैं; वे सब उस भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हैं। जिसप्रकार जंगल में लगी दावाग्नि सम्पूर्ण जंगल को जला देती है, उसे बुझाने में मेघों की भयंकर बरसात के बिना कोई समर्थ नहीं होता; उसीप्रकार पंचेन्द्रियों के विषयों की चाह एक ऐसी आग है कि जो १. समयसार आत्मख्याति टीका, कलश क्रमांक : १३१ (37)

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70